एस्ट्रो शैलजा, एस्ट्रो धर्म।
शनि का खौफ सच या झुठ
ऊँ नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्। छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।
नमस्कार दोस्तों आज मैं शनि ग्रह से जुड़े डर को दूर करने की कोशिश करूंगी | ब्रह्माण्ड के सात ग्रहों में से शनि पृथ्वी से सबसे दूर ग्रहों में से एक हैं| इसकी गति धीरे होने की वजह से इसे संस्कृत में शनैश्चर कहा गया और हिन्दी में शनिचर |
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि ग्रह की प्रकृति तामसिक, ठंडी व रूखी हैं और इसका मूल तत्व वायु हैं | इसे हानिकारक ग्रहों की गिनती में रखा गया हैं |
शनि न्याय, मर्यादा,विदेशी भाषा का ज्ञान, विरासत, खेती-बाड़ी का काम, तेल, मृत्यु, डर, दुख , कष्ट,अनुशासन,सेवक, चाचा, नीलम रत्न, काला रंग, लोहा, सेवा, पर असर डालता हैं|
शनि अपने मार्ग पर एक चककर को 30 साल में पुरा करता हैं और ढाई साल तक नक्षत्र राशि में रहता हैं जिसे शनि की ढाईया कहते हैं| जब यह कुंडली के तीन उपर्युक्त घरों से गुजरता है तो यह मनुष्य को साढ़े 7 साल तक प्रभावित करता है
जब किसी की कुंडली में शनि अशुभ स्थान पर बैठा हुआ हो तो वह उस व्यक्ति को लालची, उदास और रोगी बनाता हैं| बार-बार हानि करवाता है या वायु तत्व होने की वजह से शारीरिक रोग लगाये रखता है| शनि मनुष्यों की सही और गलत के निर्णय पर असर करता हैं| बहुत ही अशुभ दशा में शनि मुकदमे, जेल, बदनामी तक करवा देता हैं| यह अकेलापन, निराशावादी, डरपोक, नशो की लत और आत्महत्या की भावना को जगाता हैं| रुखे स्वभाव व कठोर दिल वाला बनाता हैं|
टांग, दाँत, लकवा, कैंसर, दौरे, तनाव, ब्लडप्रेशर, कब्ज, गंजापन शनि के अशुभ असर के कारण होने वाली बीमारीया है|
यही कारण है पौराणिक कथाओ में मनुष्य तो क्या भगवान भी शनि के प्रकोप से डरते दिखाये गये है|
लेकिन यह आधा सत्य हैं| कुंडली में शनि किस घर में कौनसी राशि में बैठा है यह निर्धारित करता हैं शनि का शुभ और अशुभ असर| कुंडली में शनि तुला राशि व 6, 8 और दसवें घर में शुभ होता हैं| तीसरे और छठे घर में भी शुभ असर देता हैं| ग्यारहवे घर में सबसे शुभ होता हैं| मकर व कुंभ राशि में भी शुभ असर देता हैं| मेष, सिंह, कर्क व वृश्चिक राशि में अशुभ होता हैं| पूर्व जन्म में गरीबों को, सेवको को या कमजोर को प्रताड़ित करना भी वर्तमान जीवन में शनि का अशुभ असर देता हैं|
वही शनि शुभ का प्रभाव मनुष्यों को व्यवहारिक, जिम्मेदार, ज्ञानी, ईमानदार, न्यायप्रिय, मोहमाया से दूर, लम्बी उम्र, संगठनात्मक क्षमता, नेतृत्व करने वाला बनाता हैं|
अंक विज्ञान के अनुसार जिनका जन्म किसी भी महीने की 8, 17 या 26 को होता हैं उनके देव ग्रह शनि है| ऐसे लोगो के जीवन में प्रेम संबधो को लेकर हमेशा दिक्कत रहती हैं| समाजिक तौर पर ये सबके प्रिय होते हैं| ये कर्मठ होते है और दूसरो की मदद कम लेना पसंद करते हैं| इनकी इच्छा शक्ति और गंभीर सोच इन्हें किसी भी कार्य सफलता से करने की ताकत देती हैं| इनका जीवन संघर्ष से भरा होता हैं लेकीन ये कभी हार नहीं मानते|
उपरोक्त जन्मतिथि वाले और अगर आपके जीवन में शनि का अशुभ प्रभाव दिखाई दे रहा हो तो यह उपाय जरूर करे|
* अशुभ शनि की स्थित में बबूल या कीकर की दातुन करे|
* अशुभ स्थित में अपने से कमजोर लोगो को सम्मान दे|
* शनि मंत्र, शनि चालीसा या हनुमान चालीसा का जाप करे|
* नौकर, मजदुर या गरीबों से अच्छा व्यवहार करे|
* पक्षियों को खास कर कौऐ को रोजाना दाना खिलाए |
* शनि की कारक वस्तुएं जैसे तिल या सरसों का तेल, गहरे रंग के कपडे, लोहा, उड़द दाल खुद भी इस्तेमाल करे और कुष्ठ रोगियों को दान भी करे |
* शनिवार को पीपल में जल चढ़ाए और तेल का दिया जलाए|
* बुजुर्गों की सेवा करे|
* मध्य उंगली में लोहे का छल्ला पहने| नीलम भी पहना जा सकता हैं लेकिन बिना परामर्श के ना पहने|
* घर में या दफ़्तर में गहरे रंगो का इस्तेमाल करे|
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आचार्य अभिमन्यु पाराशर
शुभ कार्यो में विशेष रुप से त्याज्य
समय के दो पहलू है. पहले प्रकार का समय व्यक्ति को ठीक समय पर काम करने के लिये प्रेरित करता है. तो दूसरा समय उस काम को किस समय करना चाहिए इसका ज्ञान कराता है. पहला समय मार्गदर्शक की तरह काम करता है. जबकि दूसरा पल-पल का ध्यान रखते हुये कभी चन्द्र की दशाओं का तो कभी राहु काल की जानकारी देता है.
राहु-काल का महत्व :
राहु-काल व्यक्ति को सावधान करता है. कि यह समय अच्छा नहीं है इस समय में किये गये कामों के निष्फल होने की संभावना है. इसलिये, इस समय में कोई भी शुभ काम नहीं किया जाना चाहिए. कुछ लोगों का तो यहां तक मानना है की इससे किये गये काम में अनिष्ट होने की संभावना रहती है.
दक्षिण भारत में प्रचलित:
राहु काल का विशेष प्रावधान दक्षिण भारत में है. यह सप्ताह के सातों दिन निश्चित समय पर लगभग डेढ़ घण्टे तक रहता है. इसे अशुभ समय के रुप मे देखा जाता है. इसी कारण राहु काल की अवधि में शुभ कर्मो को यथा संभव टालने की सलाह दी जाती है.
राहु काल अलग- अलग स्थानों के लिये अलग-2 होता है. इसका कारण यह है की सूर्य के उदय होने का समय विभिन्न स्थानों के अनुसार अलग होता है. इस सूर्य के उदय के समय व अस्त के समय के काल को निश्चित आठ भागों में बांटने से ज्ञात किया जाता है.
दिन के आठ भाग :
सप्ताह के पहले दिन के पहले भाग में कोई राहु काल नहीं होता है. यह सोमवार को दूसरे भाग में, शनि को तीसरे, शुक्र को चौथे, बुध को पांचवे, गुरुवार को छठे, मंगल को सांतवे तथा रविवार को आंठवे भाग में होता है. यह प्रत्येक सप्ताह के लिये स्थिर है. राहु काल को राहु-कालम् नाम से भी जाना जाता है.
सामान्य रुप से इसमें सूर्य के उदय के समय को प्रात: 06:00 बजे का मान कर अस्त का समय भी सायं काल 06:00 बजे का माना जाता है. 12 घंटों को बराबर आठ भागों में बांटा जाता है. प्रत्येक भाग डेढ घण्टे का होता है. वास्तव में सूर्य के उदय के समय में प्रतिदिन कुछ परिवर्तन होता रहता है.
एक दम सही भाग निकालने के लिये सूर्य के उदय व अस्त के समय को पंचाग से देख आठ भागों में बांट कर समय निकाला जाता है. इससे समय निर्धारण में ग़लती होने की संभावना नहीं के बराबर रहती है.
*संक्षेप में यह इस प्रकार है*:-
1. सोमवार :
सुबह 7:30 बजे से लेकर प्रात: 9.00 बजे तक का समय इसके अन्तर्गत आता है.
2. मंगलवार :
राहु काल दोपहर 3:00 बजे से लेकर दोपहर बाद 04:30 बजे तक होता है.
3. बुधवार:
राहु काल दोपहर 12:00 बजे से लेकर 01:30 बजे दोपहर तक होता है.
4. गुरुवार :
राहु काल दोपहर 01:30 बजे से लेकर 03:00 बजे दोपर तक होता है.
5. शुक्रवार :
राहु काल प्रात: 10:30 से 12:00 बजे तक का होता है.
6. शनिवार:
राहु काल प्रात: 09:00 से 10:30 बजे तक का होता है.
7. रविवार:
राहु काल सायं काल में 04:30 बजे से 06:00 बजे तक होता है.
राहु काल के समय में किसी नये काम को शुरु नहीं किया जाता है परन्तु जो काम इस समय से पहले शुरु हो चुका है उसे राहु-काल के समय में बीच में नहीं छोडा जाता है. कोई व्यक्ति अगर किसी शुभ काम को इस समय में करता है तो यह माना जाता है की उस व्यक्ति को किये गये काम का शुभ फल नहीं मिलता है. उस व्यक्ति की मनोकामना पूरी नहीं होगी. अशुभ कामों के लिये इस समय का विचार नहीं किया जाता है. उन्हें दिन के किसी भी समय किया जा सकता है.
इसे तीसरी आँख पर ध्यान केन्द्रित करने वाला ध्यान माना जाता है. इसके लिए व्यक्ति को अपनी आपको को बंद करके, अपना सारा ध्यान अपने माथे की भौहो के बीच में लगाना होता है. इस ध्यान को करते वक़्त व्यक्ति को बाहर और अंदर पुर्णतः शांति का अनुभव होने लगता है. इन्हें अपने माथे के बीच में ध्यान केन्द्रित कर अंधकार के बीच में स्थित रोशनी की उस ज्वाला की खोज करनी होती है जो व्यक्ति की आत्मा को परमात्मा तक पहुँचाने का मार्ग दिखाती है. जब आप इस ध्यान को नियमित रूप से करते हो तो ये ज्योति आपके सामने प्रकट होने लगती है, शुरुआत में ये रोशनी अँधेरे में से निकलती है, फिर पीली हो जाती है, फिर सफ़ेद होते हुए नीली हो जाती है और आपको परमात्मा के पास ले आती है।
श्रवण ध्यान
इस ध्यान को सुन कर किया जाता है, ऐसे बहुत ही कम लोग है जो इस ध्यान को करके सिद्धि और मोक्ष के मार्ग पर चलते है. सुनना बहुत ही कठिन होता है क्योकि इसमें व्यक्ति के मन के भटकने की संभावनाएं बहुत ही अधिक होती है. इसमें आपको बाहरी नही बल्कि अपनी आतंरिक आवाजो को सुनना होता है, इस ध्यान की शुरुआत में आपको ये आवाजे बहुत धीमी सुनाई देती है और धीरे धीरे ये नाद में प्रवर्तित हो जाती है. एक दिन आपको ॐ स्वर सुनाई देने लगता है. जिसका आप जाप भी करते हो।
प्राणायाम ध्यान
इस ध्यान को व्यक्ति अपनी श्वास के माध्यम से करता है, जिसमे इन्हें लम्बी और गहरी साँसों को लेना और छोड़ना होता है. साथ ही इन्हें अपने शरीर में आती हुई और जाती हुई साँसों के प्रति सजग और होशपूर्ण भी रहना होता है. प्राणायाम ध्यान बहुत ही सरल ध्यान माना जाता है किन्तु इसके परिणाम बाकी ध्यान के जितने ही महत्व रखते है।
मंत्र ध्यान
इस ध्यान में व्यक्ति को अपनी आँखों को बंद करके ॐ मंत्र का जाप करना होता है और उसी पर ध्यान लगाना होता है. क्योकि हमारे शरीर का एक तत्व आकाश होता है तो व्यक्ति के अंदर ये मंत्र आकाश की भांति प्रसारित होता है और हमारे मन को शुद्ध करता है. जब तक हमारा मन हमे बांधे रखता है तब तक हम इस ध्वनि को बोल तो पाते है किन्तु सुन नही पाते लेकिन जब आपके अंदर से इस ध्वनि की साफ़ प्रतिध्वनि सुनाई देने लगती है तो समझ जाना चाहियें कि आपका मन साफ़ हो चूका है. आप ॐ मंत्र के अलावा सो-ॐ, ॐ नमः शिवाय, राम, यम आदि मंत्र का भी इस्तेमाल कर सकते है।
तंत्र ध्यान
इसमें व्यक्ति को अपने मस्तिष्क को सिमित रख कर, अपने अंदर के आध्यात्म पर ध्यान केन्द्रित करना होता है. इसमें व्यक्ति की एकाग्रता सबसे अहम होती है. इसमें व्यक्ति अपनी आँखों को बंद करके अपने हृदय चक्र से निकलने वाली ध्वनि पर ध्यान लगता है. व्यक्ति इसमें दर्द और सुख दोनों बातो का विश्लेषण करता है।
योग ध्यान
क्योकि योग का मतलब ही जोड़ होता है तो इसे करने का कोई एक तरीका नही होता बल्कि इस ध्यान को इनके करने की विधि के अनुसार कुछ अन्य ध्यानो में बांटा गया है. जो निम्नलिखित है
चक्र ध्यान
व्यक्ति के शरीर में 7 चक्र होते है, इस ध्यान को करने का तात्पर्य उन्ही चक्रों पर ध्यान लगाने से है. इन चक्रों को शरीर की उर्जा का केंद्र भी माना जाता है. इसको करने के लिए भी आँखों को बंद करके मंत्रो (लम, राम, यम, हम आदि) का जाप करना होता है. इस ध्यान में ज्यादातर हृदय चक्र पर ध्यान केन्द्रित करना होता है।
दृष्टा ध्यान
इस ध्यान को ठहराव भाव के साथ आँखों को खोल कर किया जाता है. इससे अर्थ ये है कि आप लगातार किसी वास्तु पर दृष्टी रख कर ध्यान करते हो. इस स्थिति में आपकी आँखों के सामने ढेर सारे विचार, तनाव और कल्पनायें आती है. इस ध्यान की मदद से आप बौधिक रूप से अपने वर्तमान को देख और समझ पाते हो।
कुंडलिनी ध्यान
इस ध्यान को सबसे मुश्किल ध्यान में से एक माना जाता है. इसमें व्यक्ति को अपनी कुंडलिनी उर्जा को जगाना होता है, जो मनुष्य की रीढ़ की हड्डी में स्थित होती है. इसको करते वक़्त मनुष्य धीरे धीरे अपने शरीर के सभी आध्यात्मिक केन्द्रों को या दरवाजो को खोलता जाता है और एक दिन मोक्ष को प्राप्त हो जाता है. इस ध्यान को करने के कुछ खतरे भी होते है तो इसे करने के लिए आपको एक उचित गुरु की आवश्यकता होती है।