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भीलवाड़ा। श्री मनोकामनापूर्ण बालाजी सेवा समिति, छोटी हरणी की और से आयोजित “नानी बाई रो मायरो” कथा के द्वितीय दिवस पर कथा प्रवक्ता सुश्री जया किशोरी जी ने धर्मसभा को को संबोधित करते हुए की भगवान को पाने के लिए आज के समय में निष्काम भक्ति बहुत जरुरी हे, आज के समय में लोग प्रभु को केवल अपना कार्य पूरा कराने के लिए याद करते और अपना कार्य पूरा होते ही प्रभु को भूल जाते हे | भक्ति बिना स्वार्थ की होनी चाहिए, निस्वार्थ भक्ति से ही प्रभु की प्राप्ति संभव हे |
पूज्या जी ने कृष्ण सुदामा मिलन प्रसंग का वाचन वाचन करते हुए कहा की मित्रता हो तो सुदामा और कन्हैया के जैसी होनी चाहिए जोकि एक दुसरे की परिस्थिति को बखूबी समझते हो | आपका भगवान पर इतना अटूट विश्वास होना चाहिए कि आपका कोई भी कार्य हो प्रभु पर छोड़ दे और ये विश्वास रखे कि भगवान जो भी करेंगे अच्छा ही करेंगे, उसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता हे | भगवान को अपने वश में करने का मंत्र बताते हुए कहा की प्रेम ही एकमात्र ऐसा जरिया हे जिससे प्रभु को बड़े ही आसानी से पाया जा सकता हे, अपने वशीभूत किया जा सकता हे |
समिति उपाध्यक्ष छगनलाल जैन ने बताया की आज के मायरे की शुरुआत मुख्य अतिथि जिला प्रमुख शक्ति सिंह हाडा, कंचन इंडिया के श्री लादूलाल बांगड़, प्रदीप मोहन शर्मा, गोपाल स्वरुप मेवाड़ा, गोपाल शर्मा (गोपी दादा), ने दीप प्रज्वलित कर की व मायरे के अंत में लाल बाबा, श्री प्रकाशानंद जी महाराज, बब्बू बन्ना, जोनी बन्ना, मधुसुदन शर्मा, शिव सेना राज्य प्रमुख आशीष जोशी, शम्भू लाल तेली ने महाआरती कर कथा को विराम दिया | कथा में आज पूज्या जया किशोरी जी ने राधे, राधे, गोविन्द राधे..., अरे द्वारपालों कन्हैया से कह दो..., भगत के वश में हे भगवान..., सांवरिया रे आगे खड़ा हु कर जोड़..., बात मेरी मानले..., गाडी में बिठाले रे कान्हा..., आदि भजनों पर श्रद्धालु झूम उठे | कथा के दौरान कृष्ण सुदामा मिलन, भक्त के वश में हे भगवान भजन, नरसी जी का अंजार नगर की और प्रस्थान आदि प्रसंगों की जीवंत व अनोखी झांकिया प्रदर्शित की गयी | आज मायरे में कृष्ण सुदामा मिलन, नरसी जी का अंजार नगर प्रस्थान आदि प्रसंगों का वाचन जया किशोरी जी द्वारा मारवाड़ी भाषा में किया गया | कथा में अंतिम दिवस अर्थात कल नानी बाई का मायरा भरा जायेगा | मायरे का सञ्चालन सुश्री हंसा व्यास द्वारा किया गया | कथा के दौरान आज विश्व नव निर्माण सेना के सेवा प्रकल्प माता पिता की सेवा का पोस्टर पूज्या जया किशोरी जी द्वारा किया गया | नानी बाई को मायरो कथा का आयोजन 25 से 27 अक्टूम्बर 2017 तक दोपहर 1 से 5 बजे तक छोटी हरणी स्थित काठिया बाबा आश्रम में किया जा रहा हे | 27 अक्टूबर को शाम को भी भीलवाड़ा के स्थानीय कलाकार श्री आशुतोष जी सोनी, मास्टर सुनील, दिनेश मानसिंहका के द्वारा भव्य भक्ति संध्या आयोजित की जाएगी |
बृहस्पति का अनेक जगह उल्लेख मिलता है। ये एक तपस्वी ऋषि थे। इन्हें 'तीक्ष्णशृंग' भी कहा गया है। धनुष बाण और सोने का परशु इनके हथियार थे और ताम्र रंग के घोड़े इनके रथ में जोते जाते थे। बृहस्पति का अत्यंत पराक्रमी बताया जाता है। इन्द्र को पराजित कर इन्होंने उनसे गायों को छुड़ाया था। युद्ध में अजय होने के कारण योद्धा लोग इनकी प्रार्थना करते थे। ये अत्यंत परोपकारी थे जो शुद्धाचारणवाले व्यक्ति को संकटों से छुड़ाते थे। इन्हें गृहपुरोहित भी कहा गया है, इनके बिना यज्ञयाग सफल नहीं होते।
वेदोत्तर साहित्य में बृहस्पति को देवताओं का पुरोहित माना गया है। ये अंगिरा ऋषि की सुरूपा नाम की पत्नी से पैदा हुए थे। तारा और शुभा इनकी दो पत्नियाँ थीं। एक बार सोम (चंद्रमा) तारा को उठा ले गया। इस पर बृहस्पति और सोम में युद्ध ठन गया। अंत में ब्रह्मा के हस्तक्षेप करने पर सोम ने बृहस्पति की पत्नी को लौटाया। तारा ने बुध को जन्म दिया जो चंद्रवंशी राजाओं के पूर्वज कहलाये।
महाभारत के अनुसार बृहस्पति के संवर्त और उतथ्य नाम के दो भाई थे। संवर्त के साथ बृहस्पति का हमेशा झगड़ा रहता था। पद्मपुराण के अनुसार देवों और दानवों के युद्ध में जब देव पराजित हो गए और दानव देवों को कष्ट देने लगे तो बृहस्पति ने शुक्राचार्य का रूप धारणकर दानवों का मर्दन किया और नास्तिक मत का प्रचार कर उन्हें धर्मभ्रष्ट किया।
बृहस्पति ने धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और वास्तुशास्त्र पर ग्रंथ लिखे। आजकल ८० श्लोक प्रमाण उनकी एक स्मृति (बृहस्पति स्मृति) उपलब्ध है।
बृहस्पति को देवताओं के गुरु की पदवी प्रदान की गई है। ये स्वर्ण मुकुट तथा गले में सुंदर माला धारण किये रहते हैं। ये पीले वस्त्र पहने हुए कमल आसन पर आसीन रहते हैं तथा चार हाथों वाले हैं। इनके चार हाथों में स्वर्ण निर्मित दण्ड, रुद्राक्ष माला, पात्र और वरदमुद्रा शोभा पाती है। प्राचीन ऋग्वेद में बताया गया है कि बृहस्पति बहुत सुंदर हैं। ये सोने से बने महल में निवास करते है। इनका वाहन स्वर्ण निर्मित रथ है, जो सूर्य के समान दीप्तिमान है एवं जिसमें सभी सुख सुविधाएं संपन्न हैं। उस रथ में वायु वेग वाले पीतवर्णी आठ घोड़े तत्पर रहते हैं।[1]
देवगुरु बृहस्पति की तीन पत्नियाँ हैं जिनमें से ज्येष्ठ पत्नी का नाम शुभा और कनिष्ठ का तारा या तारका तथा तीसरी का नाम ममता है। शुभा से इनके सात कन्याएं उत्पन्न हुईं हैं, जिनके नाम इस प्रकार से हैं - भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती। इसके उपरांत तारका से सात पुत्र और एक कन्या उत्पन्न हुईं। उनकी तीसरी पत्नी से भारद्वाज और कच नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। बृहस्पति के अधिदेवता इंद्र और प्रत्यधि देवता ब्रह्मा हैं। महाभारत के आदिपर्व में उल्लेख के अनुसार, बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। ये अपने प्रकृष्ट ज्ञान से देवताओं को उनका यज्ञ भाग या हवि प्राप्त करा देते हैं। असुर एवं दैत्य यज्ञ में विघ्न डालकर देवताओं को क्षीण कर हराने का प्रयास करते रहते हैं। इसी का उपाय देवगुरु बृहस्पति रक्षोघ्र मंत्रों का प्रयोग कर देवताओं का पोषण एवं रक्षण करने में करते हैं तथा दैत्यों से देवताओं की रक्षा करते हैं।

जन्म
यह अवतार उन्होंने वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में लिया था। (भगवान् ने जन्म कारागार में इसलिए लिया था की उनके मामा कंस ने अपनी बहन देवकी को बंदी बना रखा था )वास्तविकता तो यह थी इस समय चारों ओर पाप कृत्य हो रहे थे। धर्म नाम की कोई भी चीज नहीं रह गई थी। अतः धर्म को स्थापित करने के लिए श्रीकृष्ण अवतरित हुए थे। ब्रह्मा तथा शिव -प्रभृत्ति देवता जिनके चरणकमलों का ध्यान करते थे, ऐसे श्रीकृष्ण का गुणानुवाद अत्यंत पवित्र है। श्रीकृष्ण से ही प्रकृति उत्पन्न हुई। सम्पूर्ण प्राकृतिक पदार्थ, प्रकृति के कार्यकार्य किया उसे अपना महत्वपूर्ण कर्म समझा, अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद सभी का उपयोग किया, क्योंकि उनके अवतीर्ण होने का मात्र एक उद्देश्य था कि इस पृथ्वी को पापियों से मुक्त किया जाए। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जो भी उचित समझा वही किया। उन्होंने कर्मव्यवस्था को सर्वोपरि माना, कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को कर्मज्ञान देते हुए उन्होंने गीता की रचना की जो कलिकाल में धर्म में सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।
संपूर्ण पृथ्वी दुष्टों एवं पतितों के भार से पीड़ित थी। उस भार को नष्ट करने के लिए भगवान विष्णु ने एक प्रमुख अवतार ग्रहण किया जो कृष्णावतार के नाम से संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध हुआ। उस समय धर्म, यज्ञ, दया पर राक्षसों एवं दानवों द्वारा आघात पहुँचाया जा रहा था।
पृथ्वी पापियों के बोझ से पूर्णतः दब चुकी थी। समस्त देवताओं द्वारा बारम्बार भगवान विष्णु की प्रार्थना की जा रही थी। विष्णु ही ऐसे देवता थे, जो समय-समय पर विभिन्न अवतारों को ग्रहण कर पृथ्वी के भार को दूर करने में सक्षम थे क्योंकि प्रत्येक युग में भगवान विष्णु ने ही महत्वपूर्ण अवतार ग्रहण कर दुष्ट राक्षसों का संहार किया। वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण अवतरित हुए। हिन्दू कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 वर्ष पूर्व हुआ था, कई वैज्ञानिकों तथा पुराणों का यही मानना है। जो महाभारत युद्ध की कालगणना से मेल खाता है।
भगवान कृष्ण के जन्म का सटीक अंदाजा शायद ही कोई लगा पाए। इस विषय पर कई मतभेद हैं परंतु सारगर्भित ध्यान डालें तो सारे नतीजे अपने स्थान पर सत्य हैं।
भागवत महापुराण के द्वादश स्कंध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कलियुग के आरंभ के संदर्भ में भारतीय गणना के अनुसार कलयुग का शुभारंभ ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फ़रवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकंड पर हुआ था। पुराणों में बताया गया है कि जब श्री कृष्ण का स्वर्गवास हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ, इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ई° पूर्व के बीच मानना ठीक रहेगा। इस गणना को सत्यापित करने वाली खोज मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई। मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था, जो हमें भागवत आदि पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा के ओर ले जाता है। इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 3000 ई° पूर्व हुआ होगा जो पुराणों की गणना में सटीक बैठता है। इससे कृष्ण जन्म का सटीक अंदाजा मिलता है।
श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरंभ
भगवान ने देखा कि संपूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव-जन्तु नहीं है। जल का भी कहीं पता नहीं है। संपूर्ण आकाश वायु से रहित और अंधकार से आवृत्त हो घोर प्रतीत हो रहा है। वृक्ष, पर्वत और समुद्र आदि शून्य होने के कारण विकृताकार जान पड़ता है। मूर्ति, धातु, शस्य तथा तृण का सर्वथा अभाव हो गया है। इस प्रकार जगत् को शून्य अवस्था में देख अपने हृदय में सभी बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एकमात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही इस सृष्टि की रचना प्रारंभ की।
सर्वप्रथम उन परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिण पार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्त्व अहंकार पांच तन्मात्राएं रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द ये पांच विषय क्रमशः प्रकट हुए। इसके उपरान्त ही श्रीकृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ। जिनकी अंगकान्ति श्याम(सावली)[काली] थी, वे नित्य तरुण पीताम्बरधारी और विभिन्न वनमालाओं से विभूषित थे। उनकी चार भुजाएं थीं, उन भुजाओं में क्रमशः शंख, चक्र, गदा और पद्म विराजमान थे। उनके मुखारबिन्द पर मंद-मंद मुस्कान की छटा छा रही थी। वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे। शारंगधनुष धारण किए हुए थे।
कौस्तुभ मणि उनके वक्षस्थल की शोभा बढ़ा रही थी। श्रीवत्सभूषित वक्ष में साक्षात् लक्ष्मी का निवास था। वे श्रीनिधि अपूर्व शोभा को प्रस्तुत कर रहे थे। शरत्काल की पूर्णिमा के चंद्रमा की प्रभा से सेवित मुखचन्द्र के कारण वे मनोहर जान पड़ते थे। कामदेव की कान्ति से युक्त रूप-लावण्य उनके सौंदर्य को और भी बढ़ा रहा था। नारायण श्रीकृष्ण के समक्ष खड़े होकर दोनों हाथों को जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे। गीताजी में भी भगवान ने अर्जुन को बताया की " मयाध्यक्षेण प्रकृतिम सूयते स चराचरम | ", अर्थात मेरी अध्यक्षता में प्रकृति समस्त चराचर जगत अर्थात सृष्टि की रचना करती है | कृष्ण ने ही अर्जुन को भगवद्गीता का सन्देश सुनाया था।
उनकी कथा कृष्णावतार में मिलती है।
यदुकुल के राजा।
अचिन्त्य भेदाभेद दर्शन के अनुसार परब्रह्म का दूसरा नाम।
कृष्ण लीलाओं में छिपा संदेश
श्रीकृष्ण लीलाओं का जो विस्तृत वर्णन भागवत ग्रंथ मे किया गया है, उसका उद्देश्य क्या केवल कृष्ण भक्तों की श्रद्धा बढ़ाना है या मनुष्य मात्र के लिए इसका कुछ संदेश है? तार्किक मन को विचित्र-सी लगने वाली इन घटनाओं के वर्णन का उद्देश्य क्या ऐसे मन को अतिमानवीय पराशक्ति की रहस्यमयता से विमूढ़वत बना देना है अथवा उसे उसके तार्किक स्तर पर ही कुछ गहरा संदेश देना है, इस पर हमें विचार करना चाहिए।
श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं, इसका स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक उल्लेख में मिलता है। वहां (3.17.6) कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षिदेव:कोटी आंगिरस ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी, जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे। श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है।
किंतु इनके जन्म और बाल-जीवन का जो वर्णन हमें प्राप्त है वह मूलतः श्रीमद् भागवत का है और वह ऐतिहासिक कम, आध्यात्मिक अधिक है और यह बात ग्रंथ के आध्यात्मिक स्वरूप के अनुसार ही है। ग्रंथ में चमत्कारी भौतिक वर्णनों के पर्दे के पीछे गहन आध्यात्मिक संकेत संजोए गए हैं।
वस्तुतः भागवत में सृष्टि की संपूर्ण विकास प्रक्रिया का और उस प्रक्रिया को गति देने वाली परमात्म शक्ति का दर्शन कराया गया है। ग्रंथ के पूर्वार्ध (स्कंध 1 से 9) में सृष्टि के क्रमिक विकास (जड़-जीव-मानव निर्माण) का और उत्तरार्ध (दशम स्कंध) में श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का वर्णन प्रतीक शैली में किया गया है। भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण लीला के कुछ मुख्य प्रसंगों का आध्यात्मिक संदेश पहचानने का यहाँ प्रयास किया गया है।
श्रीकृष्ण जन्म
त्रिगुणात्मक प्रकृति से प्रकट होती चेतना सत्ता!
श्रीकृष्ण आत्म तत्व के मूर्तिमान् रूप हैं। मनुष्य में इस चेतन तत्व का पूर्ण विकास ही आत्म तत्व की जागृति है। जीवन प्रकृति से उद्भुत और विकसित होता है अतः त्रिगुणात्मक प्रकृति के रूप में श्रीकृष्ण की भी तीन माताएँ हैं। 1- रजोगुणी प्रकृतिरूप देवकी जन्मदात्री माँ हैं, जो सांसारिक माया गृह में कैद हैं। 2- सतगुणी प्रकृति रूपा माँ यशोदा हैं, जिनके वात्सल्य प्रेम रस को पीकर श्रीकृष्ण बड़े होते हैं। 3- इनके विपरीत एक घोर तमस रूपा प्रकृति भी शिशुभक्षक सर्पिणी के समान पूतना माँ है, जिसे आत्म तत्व का प्रस्फुटित अंकुरण नहीं सुहाता और वह वात्सल्य का अमृत पिलाने के स्थान पर विषपान कराती है। यहाँ यह संदेश प्रेषित किया गया है कि प्रकृति का तमस-तत्व चेतन-तत्व के विकास को रोकने में असमर्थ है।
गोकुल-वृंदावन की लीलाएँ
शिशु और बाल वय में ही श्रीकृष्ण द्वारा अनेक राक्षसों के वध की लीलाओं तथा सहज-सरल-हृदय मित्रों और ग्रामवासियों में आनंद और प्रेम बांटने वाली क्रीड़ाओं का विस्तृत वर्णन भागवत में हुआ है। शिशु चरित्र गोकुल में और बाल चरित्र वृंदावन में संपन्न होने का जो उल्लेख है, वह आध्यात्मिक अर्थ की ओर संकेत करता है।
गो-शब्द का अर्थ इंद्रियाँ भी हैं, अतः गोकुल से आशय है हमारी पंचेद्रियों का संसार और वृंदावन का अर्थ है तुलसीवन अर्थात मन का उच्च क्षेत्र (तुरीयावस्था वाले 'तुर' से 'तुरस' और 'तुलसी' शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरणसम्मत है)। गोकुल में पूतना वध, शकट भंजन और तृणावर्त वध का तथा वृंदावन में बकासुर, अधासुर और धेनुकासुर आदि अनेक राक्षसों के हनन का वर्णन है।
व्यक्ति और समाज को अपने अंदर व्याप्त आसुरी वृत्तियों के रूप में इनकी पहचान करना होगा तभी आध्यात्मिक-नैतिक शक्ति से इनका हनन संभव होगा और तब ही इस बालरूप श्रीकृष्ण का उद्भव महाभारत के सूत्रधार, धर्मस्थापक, श्रीकृष्ण के रूप में होना संभव होगा।
वृंदावन की कथाओं में कालिया नाग, गोवर्धन, रासलीला और महारास वाली कथाएँ अधिक प्रसिद्ध हैं। श्रीकृष्ण ने यमुना को कालिया नाग से मुक्त-शुद्ध किया था। यमुना, गंगा, सरस्वती नदियों को क्रमशः कर्म, भक्ति और ज्ञान की प्रतीक माना गया है। ज्ञान अथवा भक्ति के अभाव मेंकर्म का परिणाम होता है, कर्ता में कर्तापन के अहंकार-विष का संचय। यह अहंकार ही कर्म-नद यमुना का कालिया नाग है। सर्वात्म रूप श्रीकृष्ण भाव का उदय इस अहंकार-विष से कर्म और कर्ता की रक्षा करता है (गीता- 18.55.58)।
गोवर्धन धारण कथा की आर्थिक, नीति-परक और राजनीतिक व्याख्याएं की गई हैं। इस कथा का आध्यात्मिक संकेत यह दिखता है कि गो अर्थात इंद्रियों का वर्धन (पालन-पोषण) कर्ता, अर्थात इंद्रियों में क्रियाशील प्राण-शक्ति के स्रोत परमेश्वर पर हमारी दृष्टि होना चाहिए। इसी प्रकार गोपियों के साथ रासलीला के वर्णन में मन की वृत्तियां ही गोपिकाओं के रूप में मूर्तिमान हुई हैं और प्रत्येक वृत्ति के आत्म-रस से सराबोर होने को रासलीला या रसनृत्य के रूप में चित्रित किया गया है। इससे भी उच्च अवस्था का- प्रेम और विरह के बाह्य द्वैत का एक आंतरिक आनंद में समाहित हो जाने की अवस्था का वर्णन 'महारास' में हुआ है।
मथुरा आगमन और कंस वध
श्रीकृष्ण को किशोर वय होते न होते कंस उन्हें मरवा डालने का एक बार फिर षड्यंत्र रचकर मथुरा बुलवाता है, किंतु श्रीकृष्ण उसको उसके महाबली साथियों सहित मार डालते हैं। कंस शब्द का अर्थ और उसकी कथा भी संकेत करती है कि कंस देहासक्ति का मूर्तिमान रूप है, जो संभावित मृत्यु से बचने के लिए कितने ही कुत्सित कर्म करता है। मथुरा का शब्दार्थ है- 'विक्षुब्ध किया हुआ।' अतः मथुरा है देहासक्ति से विक्षुब्ध मन। श्रीकृष्ण का कंस वध करने के उपरांत द्वारिका में राज्य स्थापना करने का अर्थ है कि आत्मभाव में प्रवेश के पूर्व देहासक्ति की समाप्ति आवश्यक है।
समुद्र में द्वारिका निर्माण और राज्य स्थापना
कंस वध के बाद श्रीकृष्ण समुद्र के भीतर (अंतः समुद्रे-भा. 10/50/50) द्वारिका का निर्माण करवाते हैं और वहां राज्य स्थापित करते हैं। इतिहास के महापुरुष श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका नगर का समुद्र किनारे या द्वीप पर निर्माण करवाना और कालांतर में उसका समुद्र में डूब जाना (जिसके कुछ अवशेष अभी हाल में ही खोजे गए हैं) उस काल की वास्तविक घटना होगी, किंतु भागवत ने 'समुद्र के अंदर' द्वारिका निर्माण का वर्णन करके स्पष्टतः यहां उसका आध्यात्मिक रूपांतरण प्रस्तुत किया है।
द्वारिका शब्द में द्वार का अर्थ है- साधन, उपाय या प्रवेश मार्ग। समुद्र व्यक्तित्व के गहरे तल- आत्म क्षेत्र को इंगित करता है। अतः आत्म क्षेत्र का प्रवेश द्वार है द्वारिका। इस क्षेत्र में चेतना का प्रवेश होने पर जीवन जीने का जैसा स्वरूप होगा, उसका निरूपण द्वारिका पर श्रीकृष्ण राज्य के रूप में किया गया है। इस क्षेत्र का परिचय हमें महाभारत में श्रीकृष्ण के लोकहितार्थ और धर्मस्थापनार्थ किए गए कार्यों द्वारा तथा गीता के अंतर्गत उनकी वाणी द्वारा कराया गया है। सारांश यह कि व्यक्ति भी संकल्प करे तो उसकी चेतना भी कृष्ण सम विकसित हो सकती है। श्रीकृष्ण जिनका नाम है, गोकुल जिनका धाम है! ऐसे श्री भग्वान देव:कोटी को बरम्बार प्रनाम है !!!!
महाभारत
श्री कृष्ण की महाभारत में भी बहुत बड़ी भूमिका थी। वे महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथी थे। उनकी बहन सुभद्रा अर्जुन की पत्नी थीं। श्री कृष्ण ने ही युद्ध से पहले अर्जुन को गीता उपदेश दिया था।
दुर्गा पार्वती का दूसरा नाम है। हिन्दुओं के शाक्त साम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है (शाक्त साम्प्रदाय ईश्वर को देवी के रूप में मानता है)। वेदों में तो दुर्गा का कोई ज़िक्र नहीं है, मगर उपनिषद में देवी "उमा हैमवती" (उमा, हिमालय की पुत्री) का वर्णन है। पुराण में दुर्गा को आदिशक्ति माना गया है। दुर्गा असल में शिव की पत्नी पार्वती का एक रूप हैं, जिसकी उत्पत्ति राक्षसों का नाश करने के लिये देवताओं की प्रार्थना पर पार्वती ने लिया था -- इस तरह दुर्गा युद्ध की देवी हैं। देवी दुर्गा के स्वयं कई रूप हैं। मुख्य रूप उनका "गौरी" है, अर्थात शान्तमय, सुन्दर और गोरा रूप। उनका सबसे भयानक रूप काली है, अर्थात काला रूप। विभिन्न रूपों में दुर्गा भारत और नेपाल के कई मन्दिरों और तीर्थस्थानों में पूजी जाती हैं। भगवती दुर्गा की सवारी शेर है।
दुर्गा सप्तशती के अनुसार इनके अन्य स्वरूप भी बतलायें गये है |
ब्राह्मणी
माहेश्वरी
कौमारी
वैष्णवी
वाराही
नरसिंही
ऐन्द्री
शिवदूती
भीमादेवी
भ्रामरी
शाकम्भरी
आदिशक्ति
रक्तदन्तिका
उग्रचंडी
'उग्रचण्डी' दुर्गा का एक नाम है। दक्ष ने अपने यज्ञ में सभी देवताओं को आमंत्रित किया , लेकिन शिव और सती को आमंत्रण नहीं दिया । इससे क्रुद्ध होकर, अपमान का प्रतिकार करने के लिए इन्होंने उग्रचंडी के रूप में अपने पिता के यज्ञ का विध्वंस किया था। इनके हाथों की संख्या १८ मानी जाती है। आश्विन महीने में कृष्णपक्ष की नवमी दिन शाक्तमतावलंबी विशेष रूप से उग्रचंडी की पूजा करते हैं।
शिव त्रिदेवों में एक देव हैं। इन्हें देवों के देव भी कहते हैं। इन्हें महादेव, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है। तंत्र साधना में इन्हे भैरव के नाम से भी जाना जाता है | हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं। वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धाङ्गिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र कार्तिकेय और गणेश हैं, तथा पुत्री अशोक सुंदरी हैं। शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है। शिव के गले में नाग देवता विराजित हैं और हाथों में डमरू और त्रिशूल लिए हुए हैं। कैलाश में उनका वास है। यह शैव मत के आधार है | इस मत में शिव के साथ शक्ति सर्व रूप में पूजित है |
भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है। भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।
शिव स्वरूप सूर्य
शिव अपने इस स्वरूप द्वारा पूर्ण सृष्टि का भरण-पोषण करते हैं। इसी स्वरूप द्वारा परमात्मा ने अपने ओज व उष्णता की शक्ति से सभी ग्रहों को एकत्रित कर रखा है। परमात्मा का यह स्वरूप अत्यंत ही कल्याणकारी माना जाता है क्योंकि पूर्ण सृष्टि का आधार इसी स्वरूप पर टिका हुआ
सत्य । मैं सूर्य (शिव ) तुम्हारा पिता और बुध, शुक्र, पृथ्वी व मंगल मेरी माया और तुम्हारी माताएँ हैं । क्या सूर्य व धरती ने किसी भी जीव-आत्मा में कभी भी कोई भेद किया ? प्रेम स्नेह ही मेरा धर्म है और यही तुमसे अपेक्षा करता हूँ ।
शिव स्वरूप शंकर जी
पृथ्वी पर बीते हुए इतिहास में सतयुग से कलयुग तक, एक ही मानव शरीर एैसा है जिसके ललाट पर ज्योति है। इसी स्वरूप द्वारा जीवन व्यतीत कर परमात्मा ने मानव को वेदों का ज्ञान प्रदान किया है जो मानव के लिए अत्यंत ही कल्याणकारी साबित हुआ है। वेदो शिवम शिवो वेदम।। परमात्मा शिव के इसी स्वरूप द्वारा मानव शरीर को रुद्र से शिव बनने का ज्ञान प्राप्त होता है।
शिव के नंदी गण
श्रृंगी
भृंगी
रिटी
टुंडी
नन्दि
नन्दिकेश्वर
एकादश रुद्र
अज
एकपात
अहिर्बुध्न्य
अपराजित
पिनाकी
त्रयम्बक
महेश्वर
वृषाकपि
शम्भु
हरण
ईश्वर
शिव की अष्टमूर्ति
क्षितिमूर्ति -सर्व
जलमूर्ति -भव
अग्निमूर्ति -रूद्र
वायुमूर्ति -उग्र
आकाशमूर्ति -भीम
यजमानमूर्ति -पशुपति
चन्द्रमूर्ति -महादेव
सूर्यमूर्ति -ईशान
व्यक्तित्व
शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है, तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है। वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी, वीतरागी हैं। सौम्य, आशुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं। शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं। उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखने को मिलता है। वे स्वयं द्वंद्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक हैं। ऐसे महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है शिवरात्रि।
पूजन
शिवरात्रि की पूजा रात्रि के चारों प्रहर में करनी चाहिए। शिव को बिल्वपत्र, धतूरे के पुष्प, प्रसाद मे भान्ग अति प्रिय हैं। एवम इनकी पूजा के लिये दूध, दही, घी, शकर, शहद इन पांच अमृत जिसे पन्चामृत कहा जाता है! पूजन में इनका उपयोग करें। एवम पन्चामृत से स्नान करायें इसके बाद इत्र चढ़ा कर जनेऊ पहनायें! अन्त मे भांग का प्रसाद चढाए ! शिव का त्रिशूल और डमरू की ध्वनि मंगल, गुरु से संबद्ध हैं। चंद्रमा उनके मस्तक पर विराजमान होकर अपनी कांति से अनंताकाश में जटाधारी महामृत्युंजय को प्रसन्न रखता है तो बुधादि ग्रह समभाव में सहायक बनते हैं। महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है।
ज्योतिर्लिंग स्थान
पशुपतिनाथ नेपाल की राजधानी काठमांडू
सोमनाथ सोमनाथ मंदिर, सौराष्ट्र क्षेत्र, गुजरात
महाकालेश्वर श्रीमहाकाल, महाकालेश्वर, उज्जयिनी (उज्जैन)
ॐकारेश्वर ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर, ॐकारेश्वर,
केदारनाथ केदारनाथ मन्दिर, रुद्रप्रयाग, उत्तराखण्ड
भीमाशंकर भीमाशंकर मंदिर, निकट पुणे, महाराष्ट्र
विश्वनाथ काशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश
त्र्यम्बकेश्वर मन्दिर त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर, नासिक, महाराष्ट्र
रामेश्वरम रामेश्वरम मंदिर, रामनाथपुरम, तमिल नाडु
घृष्णेश्वर घृष्णेश्वर मन्दिर, वेरुळ, औरंगाबाद, महाराष्ट्र
बैद्यनाथ परळी वैजनाथ बीड महाराष्ट्र, देवघर, झारखंड
नागेश्वर औंढा नागनाथ महाराष्ट्र
नागेश्वर मन्दिर, द्वारका, गुजरात
श्रीशैल श्रीमल्लिकार्जुन, श्रीशैलम (श्री सैलम), आंध्र प्रदेश
शरीकेदार -नेपाल कालान्जर बन खण्ड्
रौला केदार नेपाल् कालान्जर बन खण्ड्
ध्वज केदार नेपाल् कालान्जर बन खण्ड्
अशिम केदार नेपाल कालान्जर बन खण्ड्
पुरी भुमी के रुप मे शिब ज्योतिर्लिङ::कालान्जर
यद्दपी पुरा ब्रह्माण्ड भागवान शिब का ज्योतिर्लिङ है फिर भि पुराणौने पृथिबी मे भागवानशिव के दो ज्योतिरलिङ पुरी भुमी के रुप मे है।
कैलाश पर्बत् ( यह पुरा पर्बत एक ज्योतिर्लिङ है।
कालन्जर पर्बत बनखण्ड ( यह पुरा पर्बत बनखण्ड दुसरा भुमी ज्योतिर्लिङ है
शिब पुराणमे बर्णित कालान्जर बन खण्ड् ,भुमी ज्योतिर्लिङ, का सन्क्षिप्त इतिहास
[[यह बनखण्ड कत्त्युरी राज्य का प्रमुख तिर्थस्थल था इस बनखण्डको १३वी सदी तक कालान्जर कहते थे यहाँ भागवान का मन्दिर है , केदार के पुजारी यहाँ गौ को चराने भि ले जाया कर्ते थे इसिलिए १८ सदी मे आकर इसका नाम गौलेक्=गवाल्लेक भि पड्गया , यहाँ भागवान का मन्दिर है , आदी शन्काराचार्य ने यहाँ आकर ७ दिन तक तपश्या कि थि और उन्हौने इस बनखण्ड को शिवपुराणमे बर्णित कालान्जर होनेकी पुस्टी भि कि थि, तब से १२-१३ सदी तक इसे कालान्जर कहा जाता था, बाद मे जब कत्युरी राजबन्श कमजोर हुवा और यह भुभाग मे चन्द राजा आए, चन्दौ ने सारे महत्वपुर्ण स्थलौका नाम परिवर्तन किया , जहाँ उन्हौने राज्धानी बनाइ वो भि कालान्जर का हि तल था, उस्को उन्हौने बायोत्तर नामाकरण कर्दिय , बाद्मे १७वी सदी मे गुर्खौ ने इस का नाम बदलकर बैतडी कर्दिया, और सारा इतिहास छिन्न भिन्न हो गया, कालान्जर मे पुजा कर्ना निशेध किया गया और वहाँ केबल गाय चराने वाले ग्वाले हि जाने लगे, पुरे मन्दिर के रुप मे अवस्थित बनखण्ड को गौचरान मे परिणत कर्दिया पहले चन्द राजावौने और बादमे पुर्ण रुपसे गुर्खौ ने , और बाद मे १८वी सदी , अङ्रेज्-नेपाल के युद्ध के समय तक इस्का नाम कालोन्जर हो गया, अङ्रेज नेपाल के युद्ध के बाद गुर्खौ के दबाब मे यिसका नाम गोल्लेक बनादिया गया और आज इसे ग्वाल्लेक के नाम से जाना जाता है, यह शिब पुराणौमे बर्णित कालन्जर पर्बत हि है, बहुत सारे अध्एता और शोध कर्ने वाले भि इस बात कि पुस्टी करचुके है ]]
कैलाश पर्बत् तिब्बत । यह कालान्जरकी तरह एक भुमी ज्योतिर्लिङ है
अनेक नाम
हिन्दू धर्म में भगवान शिव को अनेक नामों से पुकारा जाता है
रूद्र - रूद्र से अभिप्राय जो दुखों का निर्माण व नाश करता है।
पशुपतिनाथ - भगवान शिव को पशुपति इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह पशु पक्षियों व जीवआत्माओं के स्वामी हैं
अर्धनारीश्वर - शिव और शक्ति के मिलन से अर्धनारीश्वर नाम प्रचलित हुआ।
महादेव - महादेव का अर्थ है महान ईश्वरीय शक्ति।
भोला - भोले का अर्थ है कोमल हृदय, दयालु व आसानी से माफ करने वाला। यह विश्वास किया जाता है कि भगवान शंकर आसानी से किसी पर भी प्रसन्न हो जाते हैं।
लिंगम - पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक है।
नटराज - नटराज को नृत्य का देवता मानते है क्योंकि भगवान शिव तांडव नृत्य के प्रेमी हैं।
शिवरात्रि
प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति एवं मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है, क्योंकि इसी दिन अर्धरात्रि के समय भगवान शिव लिंगरूप में प्रकट हुए थे।
माघकृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। ॥ शिवलिंगतयोद्रूत: कोटिसूर्यसमप्रभ॥
भगवान शिव अर्धरात्रि में शिवलिंग रूप में प्रकट हुए थे, इसलिए शिवरात्रि व्रत में अर्धरात्रि में रहने वाली चतुर्दशी ग्रहण करनी चाहिए। कुछ विद्वान प्रदोष व्यापिनी त्रयोदशी विद्धा चतुर्दशी शिवरात्रि व्रत में ग्रहण करते हैं। नारद संहिता में आया है कि जिस तिथि को अर्धरात्रि में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी हो, उस दिन शिवरात्रि करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। जिस दिन प्रदोष व अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो, वह अति पुण्यदायिनी कही गई है। इस बार 6 मार्च को शिवरात्रि प्रदोष व अर्धरात्रि दोनों में विद्यमान रहेगी।
ईशान संहिता के अनुसार इस दिन ज्योतिर्लिग का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे शक्तिस्वरूपा पार्वती ने मानवी सृष्टि का मार्ग प्रशस्त किया। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि मनाने के पीछे कारण है कि इस दिन क्षीण चंद्रमा के माध्यम से पृथ्वी पर अलौकिक लयात्मक शक्तियां आती हैं, जो जीवनीशक्ति में वृद्धि करती हैं। यद्यपि चतुर्दशी का चंद्रमा क्षीण रहता है, लेकिन शिवस्वरूप महामृत्युंजय दिव्यपुंज महाकाल आसुरी शक्तियों का नाश कर देते हैं। मारक या अनिष्ट की आशंका में महामृत्युंजय शिव की आराधना ग्रहयोगों के आधार पर बताई जाती है। बारह राशियां, बारह ज्योतिर्लिगों की आराधना या दर्शन मात्र से सकारात्मक फलदायिनी हो जाती है।
यह काल वसंत ऋतु के वैभव के प्रकाशन का काल है। ऋतु परिवर्तन के साथ मन भी उल्लास व उमंगों से भरा होता है। यही काल कामदेव के विकास का है और कामजनित भावनाओं पर अंकुश भगवद् आराधना से ही संभव हो सकता है। भगवान शिव तो स्वयं काम निहंता हैं, अत: इस समय उनकी आराधना ही सर्वश्रेष्ठ है।
महाशिवरात्रि
महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। भगवान शिव का यह प्रमुख पर्व फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया।
साभार - विकिपीडिया
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इन्द्र (या इंद्र) हिन्दू धर्म मे सभी देवताओं के राजा का सबसे उच्च पद था जिसकी एक अलग ही चुनाव पद्धति थी। वैसे इस चुनाव पद्धति के विषय में अधिक वर्णन तो नहीं है परंतु भागवत में राजा बलि के द्वारा 99 अश्वमेध यज्ञ होने के बाद भगवान वामन ने 100 वें यज्ञ को इसलिये होने से रोका क्योंकि ऐसा करने से दैत्यराज बलि ही इंद्र बन जाता। हर मनवंतर में अलग इंद्र, सप्तर्षि, अंशावतार, मनु होते हैं।
ऋग्वेद में इन्द्र
गोस्वामी तुलसीदास जी ने इन्द्र के बारे में लिखा हैकि - ‘काक समान पाप रीतौ छलीमलीन कतहूं न प्रतीतो‘ अर्थात इन्द्र का तौर तरीकाकाले कौए का सा है, वह छली है। उसका हृदय मलीन है तथा किसी पर वह विश्वास नहीं करता। वह अश्वमेध के घोड़ों को चुराया करता था। इन्द्र ने गौतम की धर्मपत्नी अहल्या का सतीत्व अपहरण किया था। कहानी इस प्रकार है- शचीपति इन्द्र ने आश्रम से इन्द्र की अनुपस्थिति जानकर और मुनि का वेष धारण कर अहल्या से कहा।।।। हे अति सुन्दरी! कामीजन भोगविलास के लिए ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते, अर्थात इस बात का इन्तज़ार नहीं करते कि जब स्त्री मासिक धर्म से निवृत हो जाएतभी उनके साथ समागम करना चाहिए। अतः हे सुन्दर कमर वाली! मैं तुम्हारे साथ प्रसंग करना चाहता हूं।। ।। विश्वामित्र कहते हैंकि हे रामचन्द्र! वह मूर्खा मुनिवेशधारी इन्द्र को पहचान कर भी इस विचार से कि देखूं देवराज के साथ रति करने में कैसा दिव्य आनन्द प्राप्त होता है, इस पाप कर्म के करने में सहमत हो गई।। ।। तदनंतर वह वह कृतार्थ हृदय से देवताओं में श्रेष्ठ इन्द्र से बोलीकि हे सुरोत्तम! मैं कृतार्थ हृदय से अर्थात दिव्य-रति का आनन्दोपभोग करने से मुझे अपनी तपस्या का फल मिल गया। अब, हे प्रेमी! आप यहां से शीघ्र चले जाइये।। ।। हे सुन्दर नितम्बों वाली! मैं पूर्ण सन्तुष्ट हूं। अब जहां से आया हूं, वहां चला जाऊँगा। इस प्रकार अहल्या के साथ संगम कर वह कुटिया से निकल गया।
धार्मिक ग्रन्थों मे छायावाद, रहस्यवाद का प्रयोग प्राचीनकाल से प्रचलित है उसपर वैदिक शब्दावली सोने पे सुहागा का काम करती थी अत: उपरोक्त कथन शब्दार्थ मात्र है वास्तविक अर्थ समझने के लिए विष्लेशण आवश्यक है विष्लेशण करने पर भिन्न भिन्न अर्थ सामने आते हैं विष्लेशण निम्न हैं-
वैदिक शब्दावली में अहिल्या का मतलब होता है " बिना हल चली " यानि बंजर भूमि। जैसा कि ज्ञात ही है इंद्र दुसरे देशो (असुरो के) पर आक्रमण करता था तो परिणाम स्वरूप हरी भरी भूमि बंजर हो जाती थी (उस समय लोग कृषि पर निर्भर रहते थे और खेती ही उनका मुख्य भोजन का स्रोत भी था।) इंद्र, इस भोजन के स्रोत या जंगल के स्रोत जिससे फल कंद मूल आदि मिलते थे उन्हें नष्ट कर के अपने दुश्मनों को नुकसान पहुचाता था। कालांतर में विश्वामित्र ने राम से जब कहा कि ये अहिल्या है, तो हो सकता है उनका तात्पर्य हो कि ये "बिना हल चली" यानि बंजर भूमि है इसे उपजाऊ बनाओ और राम ने उस भूमि को फिर से उपजाऊ बनाया हो। दूसरा प्रसंग 'ब्रह्मपुराण (87-59)" और "आनंद रामायण " के अनुसार हो सकता है, अपभ्रंश में 'सिरा '(शिला) शब्द के दो अर्थ हैं एक तो पत्थर और दूसरा सुखी नदी, हो सकता है की इंद्र ने जैसा कि मैंने कृषि के रूप में विष्लेशण किया है उसी तरह यह भी कह सकते हैं कि वस्तुत: कोई नदी होगी जो इंद्र के दुश्मन देश में जाती होगी और उसके मुख्य पानी के स्रोत को इंद्र ने सुखा दिया होगा ताकि दुश्मन देश को पानी न मिल सके और बाद में राम ने इसे जलयुक्त बनाया होगा।
इस प्रकार देखें तो वास्तव में अहिल्या प्रसंग प्रकृति का मानवीकरण मात्र है, पर राम भक्त कवियों ने इसे स्त्री मान लिया ताकि राम को ईश्वर का अवतार सिद्ध किया जा सके। क्यों की इस प्रकार साधारण जन मानस में राम को ईश्वर का अवतार आसानी से मनवाया जा सकता था क्यों की यदि ईश्वर चमत्कार न करे तो उन्हें ईश्वर कौन मानेगा ? पंडितजी से कथा सुनते समय भक्ति भावना कैसे पैदा होगी? भक्ति भावना के बगैर ध्यान एकाग्र होना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य होता है। कथा के पुन्य की प्राप्ति के लिए भक्ति भाव से ध्यान एकाग्र कर कथा सुनने का प्रावधान पता ही है।
परिचय
इन्द्र की चरितावली में वृत्रवध का बड़ा महत्त्व है।
अधिकांश वैदिक विद्वानों का मत है कि वृत्र सूखा (अनावृष्टि) का दानव है और उन बादलों का प्रतीक है जो आकाश में छाये रहने पर भी एक बूँद जल नहीं बरसाते। इन्द्र अपने वज्र प्रहार से वृत्ररूपी दानव का वध कर जल को मुक्त करता है और फिर पृथ्वी पर वर्षा होती है। ओल्डेनवर्ग एवं हिलब्रैण्ट ने वृत्र-वध का दूसरा अर्थ प्रस्तुत किया है। उनका मत है कि पार्थिव पर्वतों से जल की मुक्ति इन्द्र द्वारा हुई है।
हिलब्रैण्ट ने सूर्य रूपी इन्द्र का वर्णन करते हुए कहा है: वृत्र शीत (सर्दी) एवं हिम का प्रतीक है, जिससे मुक्ति केवल सूर्य ही दिला सकता है। ये दोनों ही कल्पनाएँ इन्द्र के दो रूपों को प्रकट करती हैं, जिनका प्रदर्शन मैदानों के झंझावात और हिमाच्छादित पर्वतों पर तपते हुए सूर्य के रूप में होता है। वृत्र से युद्ध करने की तैयारी के विवरण से प्रकट होता है कि देवों ने इन्द्र को अपना नायक बनाया तथा उसे शक्तिशाली बनाने के लिए प्रभूत भोजन-पान आदि की व्यवस्था हुई। इन्द्र प्रभूत सोमपान करता है। इन्द्र का अस्त्र वज्र है जो विद्युत प्रहार का ही एक काल्पनिक नाम है।
ऋग्वेद में इन्द्र को जहाँ अनावृष्टि के दानव वृत्र का वध करने वाला कहा गया है, वहीं उसे रात्रि के अन्धकार रूपी दानव का वध करने वाला एवं प्रकाश का जन्म देने वाला भी कहा गया है।
ऋग्वेद के तीसरे मण्डल के वर्णनानुसार विश्वामित्र के प्रार्थना करने पर इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया, जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गयी।
इन्द्र की शक्तियां
इन्द्र के युद्ध कौशल के कारण आर्यों ने पृथ्वी के दानवों से युद्ध करने के लिए भी इन्द्र को सैनिक नेता मान लिया। इन्द्र के पराक्रम का वर्णन करने के लिए शब्दों की शक्ति अपर्याप्त है। वह शक्ति का स्वामी है, उसकी एक सौ शक्तियाँ हैं। चालीस या इससे भी अधिक उसके शक्तिसूचक नाम हैं तथा लगभग उतने ही युद्धों का विजेता उसे कहा गया है। वह अपने उन मित्रों एवं भक्तों को भी वैसी विजय एवं शक्ति देता है, जो उस को सोमरस अर्पण करते हैं।
इन्द्र और वरुण
नौ सूक्तों में इंद्रस् एवं वरुण का संयुक्त वर्णन है। दोनों एकता धारण कर सोम का पान करते हैं, वृत्र पर विजय प्राप्त करते हैं, जल की नहरें खोदते हैं और सूर्य का आकाश में नियमित परिचालन करते हैं। युद्ध में सहायता, विजय प्रदान करना, धन एव उन्नति देना, दुष्टों के विरूद्ध अपना शक्तिशाली वज्र भेजना तथा रज्जुरहित बन्धन से बाँधना आदि कार्यों में दोनों में समानता है। किन्तु यह समानता उनके सृष्टि विषयक गुणों में क्यों न हो, उनमें मौलिक छ: अन्तर है:
वरुण राजा है।
असुरत्व का सर्वोत्कृष्ट सत्ताधारी है तथा उसकी आज्ञाओ का पालन देवगण करते हैं।
जबकि इन्द्र युद्ध का प्रेमी एवं वैर-धूलि को फैलाने वाला है।
इन्द्र वज्र से वृत्र का वध करता है, जबकि वरुण साधु (विनम्र) है और वह सन्धि की रक्षा करता है।
वरुण शान्ति का देवता है, जबकि इन्द्र युद्ध का देव है एवं मरूतों के साथ सम्मान की खोज में रहता है।
इन्द्र शत्रुतावश वृत्र का वध करता है, जब कि वरुण अपने व्रतों की रक्षा करता है।
पौराणिक मत
पौराणिक देवमण्डल में इन्द्र का वह स्थान नहीं है जो वैदिक देवमण्डल में है। पौराणिक देवमण्डल में त्रिमूर्ति-ब्रह्मा, विष्णु और शिव का महत्व बढ़ जाता है। इन्द्र फिर भी देवाधिराज माना जाता है। वह देव-लोक की राजधानी अमरावती में रहता है, सुधर्मा उसकी राजसभा तथा सहस्त्र मन्त्रियों का उसका मन्त्रिमण्डल है। शची अथवा इन्द्राणी पत्नी, ऐरावत हाथी (वाहन) तथा अस्त्र वज्र अथवा अशनि है। जब भी कोई मानव अपनी तपस्या से इन्द्रपद प्राप्त करना चाहता है तो इन्द्र का सिंहासन संकट में पड़ जाता है। अपने सिंहासन की रक्षा के लिए इन्द्र प्राय: तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट करता हुआ पाया जाता है। पुराणों में इस सम्बन्ध की अनेक कथाएँ मिलती हैं। पौराणिक इन्द्र शक्तिमान, समृद्ध और विलासी राजा के रूप में चित्रित है।
कथा
एक बार अनावृष्टि के कारण अकाल पड़ा। ऋषिगण जीवित थे, तथा तपस्यारत थे। उन्हें निश्चिंत देखकर इन्द्र वहां पर प्रकट हुए और उनसे पूछने लगे कि वे किस प्रकार जीवित है? ऋषिगण बोले-'मात्र वृष्टि ही मनुष्य के जीवन का साधन नहीं है। प्रकृति हर स्थिति और ऋतु के अनुकूल मनुष्य के जीवित रहने का प्रबंध कर देती है। उदाहरण के लिए मरूभूमि में भी कुछ न कुछ खाद्य उपलब्ध होता ही है तथापि अनावृष्टि कष्टकर अवश्य रहती है।' ऋषिगण पुन: तप रत हो गये।
प्रजापति की उक्ति थी कि पापरहित, जराशून्य, मृत्यु-शोक आदि विकारों से रहित आत्मा को जो कोई जान लेता है, वह संपूर्ण लोक तथा सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। प्रजापति की उक्ति सुनकर देवता तथा असुर दोनों ही उस आत्मा को जानने के लिए उत्सुक हो उठे, अत: देवताओं के राजा इन्द्र तथा असुरों के राजा विरोचन परस्पर ईर्ष्याभाव के साथ हाथों में समिधाएं लेकर प्रजापति के पास पहुंचे। दोनों ने बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन किया, तदुपरांत प्रजापति ने उनके आने का प्रयोजन पूछा। उनकी जिज्ञासा जानकर प्रजापति ने उन्हें जल से आपूरित सकोरे में देखने के लिए कहा और कहा कि वही आत्मा है। दोनों सकोरों में अपना-अपना प्रतिबिंब देखकर, संतुष्ट होकर चल पड़े। प्रजापति ने सोचा कि देव हों या असुर, आत्मा का साक्षात्कार किये बिना उसका पराभव होगा। विरोचन संतुष्ट मन से असुरों के पास पहुंचे और उन्हें बताया कि आत्मा (देह) ही पूजनीय है। उसकी परिचर्या करके मनुष्य दोनों लोक प्राप्त कर लेता है।
देवताओं के पास पहुंचने से पूर्व ही इन्द्र ने सोचा कि सकोरे में आभूषण पहनकर सज्जित रूप दिखता है, खंडित देह का खंडित रूप, अंधे का अंधा रूप, फिर यह अजर-अमर आत्मा कैसे हुई? वे पुन: प्रजापति के पास पहुंचे। प्रजापति ने इन्द्र को पुन: बत्तीस वर्ष अपने पास रखा तदुपरांत बताया-'जो स्वप्न में पूजित होता हुआ विचरता है, वही आत्मा, अमृत, अभय तथा ब्रह्म हैं।' इन्द्र पुन: शंका लेकर प्रजापति की सेवा में प्रस्तुत हुए। इस प्रकार तीन बार बत्तीस-बत्तीस वर्ष तक तथा एक बार पांच वर्ष तक (कुल 101 वर्ष तक) इन्द्र को ब्रह्मचर्य रखकर प्रजापति ने उन्हें आत्मा के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान इन शब्दों में करवाया-
यह आत्मा स्वरूप स्थित होने पर अविद्याकृत देह तथा इन्द्रियां मन से युक्त हैं। सर्वात्मभाव की प्राप्ति के उपरांत वह आकाश के समान विशुद्ध हो जाता है। आत्मा के ज्ञान को प्राप्त कर मनुष्य कर्तव्य-कर्म करता हुआ अपनी आयु की समाप्ति कर ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है और फिर नहीं लौटता।
रामायण में इन्द्र
देवताओं का राजा इन्द्र कहलाता था। उसे मेषवृषण भी कहते हैं। राम-रावण युद्ध देखकर किन्नरों ने कहा कि यह युद्ध समान नहीं है क्योंकि रावण के पास तो रथ है और राम पैदल हैं। अत: इन्द्र ने अपना रथ राम के लिए भेजा, जिसमें इन्द्र का कवच, बड़ा धनुष, बाण तथा शक्ति भी थे। विनीत भाव से हाथ जोड़कर मातलि ने रामचंद्र से कहा कि वे रथादि वस्तुओं को ग्रहण करें। युद्ध-समाप्ति के बाद राम ने मातलि को आज्ञा दी कि वह इन्द्र का रथ आदि लौटाकर ले जाय. रामायण में ये वर्णित है की इन्द्र राम के पिता दशरथ के मित्र थे।
दुर्वासा ऋषि का श्राप
एक बार इन्द्र मदिरापान कर उन्मत्त हो गये। वे एकांत में रंभा के साथ क्रीड़ा कर रहे थे, तभी दुर्वासा मुनि अपने शिष्यों के साथ उनके यहां पहुंचे। इन्द्र ने अतिथिसत्कार किया। दुर्वासा ने आशीर्वाद के साथ एक पारिजात पुष्प इन्द्र को दिया। वह पुष्प विष्णु से उपलब्ध हुआ था। इन्द्र को ऐश्वर्य का इतना मद था कि उन्होंने वह पुष्प अपने हाथी के मस्तक पर रख दिया। पुष्प के प्रभाव से हाथी अलौकिक गरिमायुक्त होकर जंगल में चला गया। इन्द्र उसे संभालने में असमर्थ रहे। दुर्वासा ने उन्हें श्रीहीन होने का श्राप दिया। अमरावती भी अत्यंत भ्रष्ट हो चली। इन्द्र पहले बृहस्पति की और फिर ब्रह्मा की शरण में पहुंचे। समस्त देवता विष्णु के पास गये। उन्होंने लक्ष्मी को सागर-पुत्री होने की आज्ञा दी। अत: लक्ष्मी सागर में चली गयी। विष्णु ने लक्ष्मी के परित्याग की विभिन्न स्थितियों का वर्णन करके उन्हें सागर-मंथन करने का आदेश दिया। मंथन से जो अनेक रत्न निकले, उनमें लक्ष्मी भी थी। लक्ष्मी ने नारायण को वरमाला देकर प्रसन्न किया।
सहस्त्रार नामक राजा की पत्नी मानस सुंदरी जब गर्भवती हुई तो उदास रहने लगी। राजा के पूछने पर उसने बताया कि इन्द्र का वैभव देखने की उसकी उत्कट अभिलाषा थी। राजा ने उसे तुरंत इन्द्र की ऋद्धि के दर्शन कराये। फलस्वरूप उसकी कोख से जिस बालक ने जन्म लिया उसका नाम इन्द्र ही रखा गया। वानरेंद्र इन्द्र के वैभव के विषय में सुनकर लंका के अधिपति माली ने अपने छोटे भाई सुमाली के साथ इन्द्र पर आक्रमण किया। अनेक सैनिकों के साथ माली मारा गया। सुमाली ने भागकर पाताल लंकापूरी में प्रवेश किया। तदनंतर इन्द्र वास्तव में 'इन्द्रवत' हो गया।
परम भक्त जुगल किशोर शाह का जन्म 6-5-1945 शेखावाटी के नवलगढ़ कसबे में स्वर्गीय भादर मल जी शाह के घर हुआ , जुगल जी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे ,अध्यात्म में उनकी रूचि बचपन से ही थी , अपने घर आने वाले साधुओ को बिना भोजन के नहीं जाने देते थे , उनके दो विशेष गुरु थे , परम संत श्री मनोहर दस बाबाजी और नीकु दस जी महाराज जिनमे इनकी अपर आस्था थी ये धर्म प्रयाण व्यक्ति थे इन्होने राजनीति में भी भाग लिया। और नगर पालिका में पार्षद और उपाध्यक्ष भी बने। और कुछ समय बाद ही जुट गए
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