Articles by "मंदिर"
Showing posts with label मंदिर. Show all posts
एस्ट्रो धर्म :



धार्मिक ग्रंथों में समुद्र मंथन का विस्तार से वर्णन है। ऐसा कहा जाता है कि जब राजा बलि तीनों लोकों के स्वामी बन गए थे। उस समय स्वर्ग के देवता इंद्र सहित सभी देवताओं और ऋषियों ने भगवान विष्णु जी से तीनों लोकों की रक्षा के लिए याचना की। तब भगवान विष्णु जी ने उन्हें समुद्र मंथन करने की युक्ति दी। भगवान नारायण ने कहा कि समुद्र मंथन से अमृत की प्राप्ति होगी, जिसके पान से आप देवता अमर हो जाएंगे। 
कालांतर में क्षीर सागर में वासुकी नाग और मंदार पर्वत की सहायता से समुद्र मंथन किया गया। इस मंथन से 14 रत्न, विष और अमृत प्राप्त हुए थे। भगवान शिव जी ने विष का पान किया तो देवताओं ने अमृत पान किया। इसके बाद दानवों और देवताओं के बीच महासंग्राम हुआ। इस युद्ध में देवताओं को विजय प्राप्त हुई। कालांतर में जिस मंदार पर्वत से समुद्र मंथन हुआ है। वह वर्तमान में बिहार राज्य के बांका जिले में अवस्थित है। मंदार पर्वत के पृथ्वी पर अवस्थित होने की भी अनोखी कथा है। आइए जानते हैं-
चिरकाल में मधु और कैटभ नामक दो दैत्य थे। जो आसुरी प्रवृति के थे। इनके अत्यचार और दुःसाहस से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। इसके बाद भगवान विष्णु जी ने दोनों को वध कर दोनों के धड़ को दो विपरीत दिशा में फेंक दिया। हालांकि, धड़ एकजुट होकर फिर से मधु और कैटभ बन गए और तीनों लोकों में अपना आतंक मचाना शुरू कर दिया।
इसके बाद भगवान विष्णु जी ने आदिशक्ति का आह्वान किया और मां दुर्गा ने दोनों का विध किया। कालांतर में भगवान श्रीहरि विष्णु जी ने मधु और कैटभ को पृथ्वी लोक पर लाकर मंदार पर्वत के नीचे उन्हें दबा दिया, ताकि वह फिर से उत्पन्न न हो सके। तब मधु और कैटभ ने मकर संक्रांति के दिन उनसे दर्शन देने का वरदान मांगा। दानवों के इस वरदान को विष्णु जी ने स्वीकार कर लिया। कालांतर से भगवान नारायण मकर संक्रांति के दिन मंदार पर्वत दानवों को दर्शन देने आते हैं।
एस्ट्रो धर्म :



कर्नाटक सरकार ने 1 जून से राज्य के सभी मंदिरों को खोलने का एलान किया है। साथ ही मस्जिद और चर्चों के भी 1 जून से खुलने की पूरी उम्मीद है। इस बारे में कर्नाटक मुज़राई मंत्री कोटा श्रीनिवास पुजारी ने मीडिया से मुखातिब होते हुए कहा कि सरकार ने सभी मंदिरों को 1 जून से खोलने का निर्णय लिया है, जो कि पिछले दो महीने से बंद है। हम कोरोना को हराने में कामयाब होंगे।
इसके लिए श्रद्धालुओं को कोरोना वायरस संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए आवश्यक सावधानियां बरतने की सलाह  दी जाएगी। साथ ही सरकार की तरफ से शारीरिक दूरी और साफ़-सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। हालांकि, धार्मिक समारोहों और मेले पर पाबंदी जारी रहेगी।
पुजारी ने आगे कहा कि मानक संचालन प्रोटोकॉल संबंधित अधिकारियों से बातचीत के बाद जारी किया जाएगा। राज्य के सभी प्रमुख मंदिर ऑनलाइन टिकट बेच सकते हैं। यह सेवा जल्द ही (1-2 दिन में) शुरू कर दी जाएगी। मीडिया रिपोर्ट की मानें तो इस संबंध में गुरुवार यानि आज कैबिनेट स्तर की मीटिंग हो रही है, जिसमें मस्जिद और चर्चों को खोलने पर विचार-विमर्श किया जा रहा है।
मंदिर मुज़राई ( हिन्दू धर्म के मंदिर और हिन्दू धर्म के कार्य ) प्रबंधन के अंतर्गत आता है। ऐसे में मस्जिदों और चर्चों को खोलने पर अभी फैसले नहीं लिया गया है। वहीं, दूसरी ओर तिरुपति बालाजी मंदिर को खोलने की तैयारी भी जोर शोर पर है।
हालांकि, राज्य सरकार का यह आदेश केंद्र सरकार पर निर्भर है। अगर लॉकडाउन को चरणबद्ध तरीके से बढ़ाया जाता है तो राज्य सरकार का यह आदेश निरस्त हो जाएगा। ऐसे में अब सबकी निगाहें केंद्र सरकार पर टिकी है। गौरतलब है कि लॉकडाउन 4.0 , 31 मई को समाप्त हो रहा है। इसके लिए केंद्रीय स्तर की मीटिंग चल रही है। जल्द ही अगले लॉकडाउन के बारे में फैसला आ सकता है।
एस्ट्रो धर्म :


अब तक टेंट में रह रहे रामलला अब अस्थायी मंदिर में प्रवेश करेंगे. गुरुवार को इस मंदिर को स्थाई रूप दिया जाएगा. अस्थायी मंदिर का काम लगभग पूरा हो चुका है. यह पहले वाले मंदिर के पास ही बना है. भगवा रंग में सजाये जा रहे इस मंदिर का पहला घेरा लोहे के गार्डर में जालीयुक्त है, तो दूसरा लकड़ी का है. आखिरी घेरे में भव्य बुलेटप्रूफ फाइबर का मंदिर है, जिसमें रामलला विराजमान होंगे.
मंदिर में सबसे पहले करीब 50 फुट ऊंचा और 60 फुट चौड़े लोहे के मजबूत गार्डर का घेरा बनाया गया है. इस घेरे को लोहे की मजबूत जाली से ऊपर समेत चारों तरफ से इतनी मजबूती से वेल्ड किया गया है कि किसी के घुसने की गुंजाइश ना रहे.
इसके भीतर पूर्व मुखी मंदिर के चबूतरे का पिछला हिस्सा जाल से सटा है. फिर तीन फुट ऊंचे चबूतरे पर 24 गुणा 17 फुट का विदेशी मजबूत मलेशियन लकड़ी का करीब 25 फुट ऊंचा मंदिरनुमा फाउंडेशन के साथ पूरा ढांचा खड़ा किया गया है.
अस्थाई मंदिर के भीतर जाने का एक मात्र द्वार पूर्व दिशा में रखा गया है. अंदर का आखिरी सुरक्षा घेरा वाला मुख्य मंदिर का भव्य स्वरूप बुलेटप्रूफ फाइबर से बनेगा. इस मंदिर में एक मात्र पूर्व दिशा की ओर का गेट भी बुलेटप्रूफ होगा. मंदिर में तीन गेट होंगे, दूसरा लकड़ी का और तीसरा मजबूत लोहे का होगा.
भक्तों की सुरक्षा व बंदरों से बचाव के लिए दर्शन मार्ग को भी पूरी तरह लोहे के गार्डर में जाली लगाकर पैक किया गया है. लोहे की गार्डर व जाली जहां भगवा रंग से रंगने का काम शुरू हुआ है. वहीं लकड़ी का सामान गृह मंत्रालय की टीम दिल्ली से ही भगवा रंग का ले आई थी.

मंदिर में आनेवाले लोगों के लिए कोरोना वायरस से बचाव के लिए भी सैनिटाइजेशन व हाथ धोने के प्रबंध ट्रस्ट की ओर से किए जाएंगे.
रामलला 24 मार्च को फाइवर के मंदिर में जाएंगे
बता दें, रामलला विराजमान चैत्र नवरात्र से एक दिन पहले 24 मार्च को फाइबर के मंदिर में विराजमान होंगे. राम जन्मभूमि पर मंदिर बनने तक वह इसी फाइबर के मंदिर में रहेंगे. यह जानकारी श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने दी थी. चंपत राय के मुताबिक, ट्रस्ट की दूसरी बैठक रामनवमी के बाद चार अप्रैल को अयोध्या में ही होगी.
गौरतलब है कि फाइबर से बना यह राम मंदिर पानी और अग्नि से पूरी तरह सुरक्षित है. यह पहला मौका होगा, जब 1992 के बाद रामलला अपने टेंट से निकलकर फाइबर से बने सुख-सुविधायुक्त मंदिर में स्थानांतरित होंगे.
रामलला के प्रधान पुजारी आचार्य सत्येंद्र दास ने कहा, "27 वर्षों से रामलला टेंट में विराजमान हैं. अब रामलला का फाइबर का मंदिर आ गया है. इसमें जल्द से जल्द रामलला को शिफ्ट कर दिया जाएगा. फाइबर का मंदिर बहुत अच्छा है. उसमें रामलला के लिए जरूरत की सारी सुख-सुविधाएं होंगी. रामलला को अब किसी भी तरह की समस्या नहीं होगी."
श्री राम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के खाते में पहली बार 20 फरवरी से 5 मार्च तक की रामलला को चढ़ाई गई धनराशि जमा की गई. श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के खाता संचालन के लिए अधिकृत सदस्य डॉ. अनिल मिश्र के मुताबिक, अयोध्या की भारतीय स्टेट बैंक की शाखा में खोले गए ट्रस्ट के खाते में गुरुवार व शुक्रवार दो दिनों की काउंटिंग के बाद आठ लाख चार हजार 982 रुपये जमा किए गए हैं.
एस्ट्रो धर्म :

सनातन धर्म में त्रिदेवों में से एक भगवान शिव भी हैं। वहीं आदि पंचदेवों में भी एक भगवान शिव ही हैं। महादेव को सनातन में संहार का देवता माना जाता है। ऐसे में भगवान भोलेनाथ के भारत में अनेक धर्मस्थल बने हैं जिनको लेकर अलग-अलग इतिहास और मान्यताएं जुड़ी हुई है, लेकिन भारत में कुछ मंदिर ऐसे भी हैं जिनके बारे में लोग बहुत कम ही जानते हैं।
देशभर में जहां भगवान शिव के अनेक मंदिर बने हैं, वहीं आज भी कुछ ऐसे रहस्यमयी मंदिर मौजूद है, जिनके तथ्य लोगों को हैरान कर सकते हैं। आज हम बात कर रहे हैं एक ऐसे मंदिर की जिसके बारे में तो लोगों ने बहुत कम सुना होगा, लेकिन इसकी धार्मिक मान्यता काफी ज्यादा है।
दरअसल ये बेहद ही रहस्यमयी शिव मंदिर (Mysterious Temple) झारखंड (Jharkhand) के रामगढ (Ramgarh) में स्थित है। जिसे टूटी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर में 24 घंटे शिवलिंग पर जलाभिषेक होता रहता है और इस जलाभिषेक का स्त्रोत मां गंगा को माना गया है।। वैसे तो आमतौर पर लोग 1 से 2 या 3 बार जलाभिषेक करते हैं, लेकिन 24 घंटों तक जलाभिषेक किसी को भी हैरान कर सकता है। जी हां, इस रहस्यमयी मंदिर की एक बेहद रोचक इतिहास है जिससे बहुत कम लोग जानते हैं।
प्राचीन (Historical) कहानी के अनुसार सन् 1925 में अंग्रेज (Foreigners) झारखंड के रामगढ इलाके में रेलवे लाइन बिछा रहे थे। जब वे पानी की खुदाई कर रहे थे, तब इसी दौरान उन्हें जमीन के अंदर कुछ अजीब सा दिखाई दिया जो गुंबदनुमा आकार का था।
अंग्रेजों ने जमीन के अंदर तक खुदाई की जहां उन्हें एक प्राचीन मंदिर मिला। इस मंदिर में भगवान शिव का शिवलिंग मौजूद था जिसके ठीक उपर से जल निकल रहा था जो शिवलिंग पर आकर गिर रहा था। जल का स्त्रोत गंगा मां (Goddess Ganga) कि प्रतिमा (Statue) से निकल रहा था जो नाभी से आपरूपि गंगा मां के हाथों से निकल रहा था और शिवलिंग पर गिर रहा था।
स्वंय गंगा करती है भगवान शिव का जलाभिषेक
इस दृश्य को देखने के बाद अंग्रेज काफी हैरान रह गए थे। बता दें कि, रामगढ के इस मंदिर में आज भी रहस्य सुलझ नहीं पाया है कि आखिर कहां से ये पानी निकलता है और क्या इसका स्त्रोत हैं, माना जाता है कि यह भगवान शिव का चमत्कार है जिसे स्वंय गंगा मां भी पूजती हैं।
एस्ट्रो धर्म :

हनुमान जी को भगवान शिव का 11वां रुद्रावतार व चिरंजीवी माना जाता है। सनातन धर्म में हनुमान ही एक ऐसे भगवान है जिनकी पूजा कलयुग में सबसे ज्यादा की जाती है। यही कारण है कि पुरे भारत में हनुमान जी के कई प्राचीन और चमत्कारी मंदिर स्थित है।
देश में ऐसा ही एक चमत्कारी मंदिर देवभूमि में भी मौजूद है, जिसके संबंध में दावा किया जाता है कि यहां कोई भी सच्चा भक्त पूरी आस्था और विश्वास के साथ जो भी मनोकामना रखता है, वह पूरी हो जाती है।
जी हां, हम बात कर रहे है हनुमानगढ़ी मंदिर ( Hanumangarhi Temple Nainital ) की, यह मंदिर हनुमान जी को समर्पित नैनीताल में स्थित यहां का सबसे प्रसिद्ध मंदिर हैं। यह मंदिर नैनीताल के तल्लीताल से वेधशाला वाले मार्ग पर करीब 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। यह प्रसिद्ध मंदिर समुंद्र की सतह से 1951 मीटर की ऊंचाई पर है।
मंदिर का निर्माण
बताया जाता है कि यह मंदिर “नीम करोली बाबा” के द्वारा 1950 में बनाया गया था। यहां इसके अलावा “शीतला माता मंदिर” और “लीला शाह बापू का आश्रम” ,पहाड़ी के दूसरी ओर स्थित है। इस मंदिर परिसर में 70 चरणों की चढ़ाई के बाद पहुंचा जा सकता है।
हनुमानगढ़ी मंदिर अधिक लोकप्रिय है क्योंकि यह 1950 में एक स्थानीय संत नीम करोली बाबा द्वारा बनाया गया था। वह नियमित रूप से भगवान हनुमान के आशीर्वाद लेने के लिए मंदिर का दौरा भी करते हैं। यह मंदिर सैलानी , पर्यटकों और धार्मिक यात्रियों के लिए विशेष , आकर्षण का केंद्र है।
हनुमानगढ़ी मंदिर की मान्यता ( Beliefs of Hanumangarhi Temple Nainital ) : जब पेड़ पौधे भी भगवान राम का नाम जपने लगे...
इस “हनुमानगढ़ी मंदिर” के बारे में मान्यता है कि जो भी भक्त सच्चे मन से प्राथना कर मन्नत मांगता है वो अवश्य पूरी होती है। हर वर्ष इस मंदिर में भक्तों की भीड़ लगी रहती है। इस मंदिर से पर्वत और हिमालय के कई सुन्दर दृश्य दिखाई देते हैं |
हनुमानगढ़ी मंदिर ( Hanumangarhi Temple Nainital ) के निर्माण के बारे में स्थानीय लोगों का कहना है कि पहले इस जगह पर घना जंगल था। जंगले में एक मिटटी का टीला था, जिसके समीप बैठकर बाबा नीम करोली ने एक साल तक “राम नाम” जपा था। यह सब देखकर वहां मौजूद पेड़ पौधे भी भगवान राम का नाम जपने लगे।
चमत्कार : जब पानी बन गया घी
यह अद्भुत दृश्य देखकर बाबा ने कीर्तन कराया। कीर्तन समाप्त होने के बाद भंडारा कराया , परन्तु प्रसाद बनाते समय घी कम गया तो बाबा ने पानी के एक कनस्तर को कढाई में डाल दिया , चमत्कार तब हुआ जब वह पानी स्वयं घी में परिवर्तित हो गया।

हनुमानगढ़ी मंदिर में खास( About Hanumangarhi Temple Nainital )
हनुमानगढ़ी मंदिर (Hanumangarhi Temple Nainital) नैनीताल की सुन्दरवादियों में बहुत ही रमणीक जगह पर स्थित है। नैनीताल में हनुमानगढ़ी सैलानी, पर्यटकों और धार्मिक यात्रियों के लिए विशेष, आकर्षण का केन्द्र है। यहां से पहाड़ की कई चोटियों के और मैदानी क्षेत्रों के सुनहरे दृश्य दिखाई देते हैं।
इस पवित्र मंदिर में अष्ठधातु की बनी भगवान राम और सीता , भगवान कृष्ण की मूर्ति और बाबा नीम करोली महाराज की मूर्ति स्थापित है। हनुमानगढ़ी के पास ही एक बड़ी वेद्यशाला है।
एस्ट्रो धर्म :
Shani Dev Temple Kharsali, Mythological Importance, Timings
सनातन धर्म में शनि को न्याय का देवता माना गया है। ऐसे में हिंदू धर्म में शनिवार के दिन शनिदेव की पूजा का विशेष महत्व बताया गया है। माना जाता है कि शनि हमारे जीवन को अत्यधिक प्रभावित करते हैं।
वहीं ज्योतिष के अनुसार जो लोग अपनी कुंडली से शनि की दशा को सुधारना चाहते हैं वे शनिवार के दिन शनि मंदिर जरूर जाएं। वैसे तो हमारे भारत देश में ऐसे बहुत से मंदिर स्थापित हैं, जिनकी मान्यताएं दूर-दूर तक फैली हुई हैं। लेकिन आज हम आपको शनिदेव के एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं, जहां साल में एक बार चमत्कार जरूर होता है।
समुद्री तल से लगभग 7000 फुट की ऊंचाई पर
बताया जाता है कि यह मंदिर समुद्री तल से लगभग 7000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार न्याय के देवता शनिदेव को हिंदू देवी यमुना का भाई है। देवभूमि उत्तराखंड के खरसाली में शनिदेव का धाम स्थित है। बताया जाता है कि यहां लोग अपने कष्टों को दूर करने के लिए हर साल बड़ी संख्या में आते हैं और शनिदेव का दर्शन करते हैं।
मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने करवाया था। यह मंदिर पांच मंजिला है, लेकिन बाहर से देखने से पता नहीं चल पाता कि यह मंदिर पांच मंजिला है। जानकारों के अनुसार इस मंदिर के निर्माण में पत्थर और लकड़ी का उपयोग किया गया है।
अखंड ज्योति : जो दूर करती है जीवन के सारे दुख
वहीं इस मंदिर में शनिदेव की कांस्य की मूर्ति विराजमान है और साथ ही यहां एक अखंड ज्योति भी मौजूद है। मान्यता है कि इस अखंड ज्योति के दर्शन मात्र से ही जीवन के सारे दुख दूर हो जाते हैं और शनि दोष से मुक्ति मिल जाती है। कहते हैं कि इस मंदिर में साल में एक बार चमत्कार होता है।
स्थानीय लोगों के अनुसार, हर साल कार्तिक पूर्णिमा के दिन मंदिर के ऊपर रखे घड़े खुद बदल जाते हैं। बताया जाता है कि इस दिन जो भक्त शनि मंदिर में आता है, उसके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं।
शनिदेव यहां आते हैं बहन यमुना से मिलने
यहां प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार प्रतिवर्ष अक्षय तृतीय पर शनि देव यमुनोत्री धाम में अपनी बहन यमुना से मिलकर खरसाली लौटते हैं। भाईदूज या यम द्वितिया के त्यौहार यमुना को खरसाली ले जा सकते हैं, ये पर्व दिवाली के दो दिन बाद आता है।
शनिदेव और देवी यमुना को पूजा-पाठ कर के एक धार्मिक यात्रा के साथ लाया ले जाया जाता है। मंदिर में शनि देव 12 महीने तक विराजमान रहते हैं और सावन की संक्रांति में खरसाली में तीन दिवसीय शनि देव मेला भी आयोजित किया जाता है।

एस्ट्रो धर्म :

Chhath Puja Surya Mandir In India : Famous Sun Temples Of India ...
सनातन धर्म और सनातन संस्कृति में सूर्य पूजा का पूराना इतिहास है। तभी तो सनातन धर्म के आदि पंच देवों में एक सूर्यदेव भी है। जिन्हें कलयुग का एकमात्र दृश्य देव माना जाता है। सूर्य को देव या यूं कहें सूर्य नारायण मानते हुए देश में कुछ जगहों पर सूर्य मंदिरों का भी समय समय पर निर्माण होता रहा है। जो आज भी कई रहस्य लिए हुए हैं।
जानकारों के अनुसार भारत में मौजूद प्राचीन मंदिर आज भी इतिहास के साक्षी बने ज्यों के त्यों खड़े हैं। हालांकि कुछ प्राचीन मंदिर अब अपने असली आकार में नहीं हैं यानि खंडित हो चुके हैं लेकिन फिर भी यह मंदिर इतिहास की कई घटनाओं व कहानियों को समेटे हुए हैं।
एक ऐसा ही प्राचीन मंदिर है ‘कटारमल सूर्य मन्दिर’। इस मंदिर को उड़ीसा में स्थित सूर्य देव के प्रसिद्ध कोणार्क मंदिर के बाद दूसरा सूर्य मंदिर माना जाता है। आज हम आपको इस मंदिर से जुड़ी कुछ खास बातों की जानकारी दे रहे हैं।
देवभूमि में स्थित कटारमल सूर्य मन्दिर
देवभूमि उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा में कटारमल नामक स्थान पर भगवान सूर्य देव से संबंधित प्राचीन मंदिर ‘कटारमल सूर्य मन्दिर’ स्थित है। यह मंदिर उत्तराखण्ड में अल्मोड़ा जिले के अधेली सुनार नामक गांव में है। मंदिर के निर्माण के समय को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं।
कुछ जानकारों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण नौवीं या ग्यारहवीं शताब्दी में कटारमल नामक एक शासक द्वारा करवाया गया माना जाता है। वहीं कुछ विद्वान इस मंदिर का निर्माण छठीं से नवीं शताब्दी में हुआ मानते हैं।
यह भी कहा जाता है कि प्राचीन काल में कुमाऊं में कत्यूरी राजवंश का शासन था। इसी वंश के शासकों ने इस मंदिर के निर्माण में अपना योगदान दिया था। लेकिन पुरातत्व विभाग द्वारा मंदिर की वास्तुकला व स्तंभों पर उत्कीर्ण अभिलेखों को लेकर किए गए अध्ययनों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण समय तेरहवीं सदी माना गया है।
ऐस्ट्रो  धर्म : 

उत्तराखंड को देवों की भूमि कहा जाता है। भारत के पावन चार धामों से एक धाम, बदरीनाथ धाम भी यहीं उत्तराखंड में है। आज, हम भारत के नहीं उत्तराखंड के पावन धामों के बारे में आपको बताने जा रहे हैं। इन चार धामों को छोटा चार धाम के नाम से भी जाना जाता है। ये चारों धाम उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में स्थित हैं।  

उत्तराखंड के किस जिले में स्थित हैं ये धाम :

1. गंगोत्री- उत्तरकाशी

     उत्तराखंड का यह पावन धाम उत्तरकाशी से 100 किमी की दूरी पर स्थित है। यह गंगा नदी का उद्गम स्थान है। मां गंगा जी का मंदिर समुद्र तल से 3042 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। प्रत्येक वर्ष अक्षय तृतीया के पावन पर्व पर गंगोत्री धाम के कपाट खोले जाते हैं। दीपावली के दिन मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं।

2. यमुनोत्री- उत्तरकाशी

    उत्तराखंड का यह पावन धाम उत्तरकाशी जिले में स्थित है। समुद्र तल से 3235 मी. की ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर यमुना मां को समर्पित है। यमुनोत्री से यमुना का उद्गम स्थल मात्र एक किमी की दूरी पर है। प्रत्येक वर्ष अक्षय तृतीया के पावन पर्व पर यमुनोत्री धाम के कपाट खोले जाते हैं। दीपावली के दिन मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं।

3. केदारनाथ- रुद्र प्रयाग

    भगवान शिव शंकर को समर्पित उत्तराखंड का यह पावन धाम भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह उत्तराखंड के रुद्र प्रयाग जिले में स्थित है। श्री केदारनाथ जी का मंदिर 3593 मीटर की ऊंचाई पर बना हुआ है। इस पावन धाम के कपाट अप्रैल के अंत में या मई की शुरुआत में खुलते हैं और नवंबर मध्य तक खुले रहते हैं।

4. बदरीनाथ- चमोली
    भारत के पावन चार धामों में से एक बदरीनाथ धाम उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित है और यह धाम भगवान विष्णु जी को समर्पित है। अलकनंदा नदी के तट पर स्थित बदरीनाथ धाम समुद्र तल से 3,133 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।  इस पावन धाम के कपाट अप्रैल के अंत में या मई की शुरुआत में खुलते हैं और नवंबर मध्य तक खुले रहते हैं।



#dharm #mandir #bhajan #god #pooja #arti #prayer #astrodharm #aajkidelhi #indiannewsonline #aalamban #ngo #charitabletrust #ramayan #shrimadbhgwadgeeta 
Aaj Ki Delhi.in/ The 24x7 news/ Indian news Online/ Prime News.live/Astro Dharm/ Yograaj Sharma/ 7011490810
ऐस्ट्रो  धर्म :




आपने हमेशा लोगों को पूजा की थाली या धूप बत्ती लिए पेड़ या मंदिर के गोल-गोल चक्कर लगाते हुए देखा होगा. कोई एक चक्कर, कोई दो तो कोई सात चक्कर लगाता है. मंदिरों में ही नहीं बल्कि गुरुद्वारों में भी पाठ के बाद लोग चक्कर लगाते हैं. इतना ही नहीं, लोग सुबह-सुबह सूर्य पूजा के दौरान भी गोल-गोल घूमने लग जाते हैं. क्या कभी आपने सोचा है कि ऐसा वो क्यों करते है? क्यों लोग मंदिरों गुरुद्वारों के चक्कर लगाते हैं. श्रृद्धालुओं की मानें तो उनके अनुसार ऐसा करने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं. लेकिन आपको बता दें इसके पीछे कई और कारण भी है. 
ऐसी मान्यता है कि मंदिर में दर्शन करने और पूजा करने के बाद परिक्रमा करने से सारी सकारात्मक ऊर्जा शरीर में प्रवेश करती है और मन को शांति मिलती है. साथ ही यह भी मान्यता है कि नंगे पांव परिक्रमा करने से अधिक सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है. 
वहीं, धार्मिक मान्यता के अनुसार जब गणेश और कार्तिक के बीच संसार का चक्कर लगाने की प्रतिस्पर्धा चल रही थी तब गणेश जी ने अपनी चतुराई से पिता शिव और माता पार्वती के तीन चक्कर लगाए थे. इसी वजह से लोग भी पूजा के बाद संसार के निर्माता के चक्कर लगाते हैं. उनके अनुसार ऐसा करने से धन-समृद्धि होती हैं और जीवन में खुशियां बनी रहती हैं. 
परिक्रमा करने की सही दिशा के विषय में माना गया है कि हमेशा परिक्रमा करते वक्त भगवान दाएं हाथ की तरफ होने चाहिए. यानी परिक्रमा घड़ी की सुई की दिशा में करनी चाहिए. यह भी माना जाता है कि परिक्रमा 8 से 9 बार करनी चाहिए. 
Aaj Ki Delhi.in/ The 24x7 news/ Indian news Online/ Prime News.live/Astro Dharm/ Yograaj Sharma/ 7011490810
एस्ट्रो  धर्म :


सबरीमाला मंदिर को मंडला पूजा के लिए शनिवार शाम पांच बजे खोल दिया गया है। करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र है सबरीमाला मंदिर। भक्तों ने 2 महीने बाद मंदिर में भगवान अयप्पा के दर्शन किए। आज से ही मंदिर में मंडला पूजा की शुरुआत भी की जाएगी। सबरीमाला मंदिर भगवान अयप्पा का बहुत प्रसिद्ध मंदिर है। भगवान अयप्पा ब्रह्मचारी माने जाते हैं, इसलिये इस मंदिर में सिर्फ 10 साल से कम उम्र और 50 साल से ज्यादा वाली महिलाओं को ही प्रवेश की अनुमती है। मंदिर में भगवान के दर्शन करने के लिये 41 दिनों पहले से ही तैयारियां करनी पड़ती हैं, जिसे मंडल व्रतम कहा जाता है।
Aaj Ki Delhi.in/ The 24x7 news/ Indian news Online/ Prime News.live/Astro Dharm/ Yograaj Sharma/ 7011490810
एस्ट्रो  धर्म :

दुनिया में शिवलिंग पूजा की शुरूआत होने का गवाह बना ऐतिहासिक और प्राचीनतम जागेश्वर महादेव का मंदिर उत्तराखंड के अल्मोडा जिले के मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर देवदार के वृक्षों के घने जंगलों के बीच पहाड़ी पर स्थित है।
इस मंदिर परिसर में पार्वती, हनुमान, मृत्युंजय महादेव, भैरव, केदारनाथ, दुर्गा सहित कुल 124 मंदिर स्थित हैं जिनमें आज भी विधिवत् पूजा होती है।
भारतीय पुरातत्व विभाग ने इस मंदिर को देश के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक बताया है और बाकायदा इसकी घोषणा करता एक शिलापट्ट भी लगाया गया है। मंदिर के मुख्य पुजारी के अनुसार एक सचाई यह भी है कि इसी मंदिर से ही भगवान शिव की-लिंग पूजा के रूप में शुरूआत हुई थी।
शिव के पदचिह्न
वहीं देवभूमि, उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के मंदिर के पास शिव के पदचिह्न हैं। मान्यता है कि पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।
यहां की पूजा के बाद ही पूरी दुनिया में शिवलिंग की पूजा की जाने लगी और कई स्वयं निर्मित शिवलिंगों को बाद में ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजा जाने लगा।
मुख्य पुजारी के अनुसार यहां स्थापित शिवलिंग स्वयं निर्मित यानी अपने आप उत्पन्न हुआ है और इसकी कब से पूजा की जा रही है इसकी ठीक ठीक से जानकारी नहीं है, लेकिन यहां भव्य मंदिरों का निर्माण आठवीं शताब्दी में किया गया है. घने जंगलों के बीच विशाल परिसर में पुष्टि देवी (पार्वती), नवदुर्गा, कालिका, नीलकंठेश्वर, सूर्य, नवग्रह सहित 124 मंदिर बने हैं।
वैसे हमारे शास्त्रों में भारतवर्ष में स्थापित सभी बारह ज्योतिर्लिंग के बारे में कुछ इस तरह से कहा गया है-
सोराष्ट्र सोमनाथ च श्री शेले मलिकार्जुनम ।
उज्जयिन्या महाकालमोकारे परमेश्वर ।
केदार हिमवत्प्रष्ठे डाकिन्या भीमशंकरम ।।
वाराणस्या च विश्वेश त्रम्ब्कम गोमती तटे।।
वेधनात चिताभुमो नागेश दारुकावने ।
सेतुबंधेज रामेश घुश्मेश तु शिवालये ।।
द्वादशे तानि नामानि: प्रातरूत्थया य पवेत ।
सर्वपापै विनिमुर्कत : सर्वसिधिफल लभेत ।।
इसे दोहे में एक शब्द है "नागेश दारुकावने" इस शब्द की एक व्याख्या कुछ इस प्रकार हैं, दारुका के वन में स्थापित ज्योतिर्लिंग, दारुका देवदार के वृक्षों को कहा जाता हैं, तो देवदार के वृक्ष तो केवल जागेश्वर में ही है ।
शिवपुराण के मानस खण्ड में है जिक्र: आसपास के क्षेत्रों के नाम भी नाग के ही नामों पर...
मुख्य पुजारी के अनुसार दुनिया में भगवान शिव की-लिंग के रूप में पूजा की शुरूआत इसी मंदिर से हुई थी और इसका जिक्र शिवपुराण के मानस खण्ड में हुआ है ।कई जानकारों के अनुसार जागेश्वर को ही नागेश्वर माना जाता है क्योंकि इस मंदिर के आसपास के अधिकांश इलाकों का नाम नाग पर ही आधारित है।
बेरीनाग, धौलेनाग, लियानाग, गरूड स्थानों से भी यह साबित होता है कि यह इलाका नाग बहुल था और इसीलिए इसका नाम नागेश्वर भी पडा लेकिन कहा जाता है कि इसके जाग्रत अवस्था में होने के कारण बाद में इसे जागेश्वर भी कहा जाने लगा। दरअसल आदिशंकराचार्य के यहां आने तक की पूरी कथा इसके जाग्रत होने की साक्षी है।
मानस खण्ड में नागेशं दारूकावने का जिक्र आया है। दारूकावने देवदार के वन के लिए कहा गया है ।इससे इसे नागेश्वर का नाम भी दिया गया, चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भारत यात्रा के दौरान यहां की यात्रा की थी और उसने इस मंदिर की प्राचीनता के बारे में जिक्र भी किया है ।
यह मंदिर साक्ष्यों के आधार पर करीब ढाई हजार साल पुराना है,और इस मंदिर की दीवारों की प्राचीनता इसकी गवाह है।
यह मंदिर भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगो में एक है, जगद्गुरु शंकराचार्य ने अपने भ्रमण के दौरान इसकी मान्यता को पुनर्स्थापित किया था। इस मंदिर समुह के मध्य में मुख्य मंदिर में स्थापित शिवलिंग को श्री नागेश ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजा जाता है । इसी नाम का एक और ज्योतिर्लिंग द्वारिका के पास भी स्थापित है, जिसे श्री नागेश ज्योतिर्लिंग के रूप में भी मान्यता प्राप्त है।
जागेश्वर के इन मंदिरों का निर्माण पत्थर की बड़ी-बड़ी शिलाओं से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं । मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकडी का भी बखूबी प्रयोग किया गया है । इन मंदिर समूह कुछ मंदिर के शिखर काफी ऊंचे तो कुछ काफी छोटे आकार के भी हैं। 
जागेश्वर महादेव की यह है कथा : आदि शंकराचार्य ने किया कीलित...
पुराणों के अनुसार रावण, मार्कण्डेय, पांडव व लव-कुश ने भी यहां शिव पूजन किया था, इतना ही नहीं भगवान शिव तथा सप्तऋषियों ने भी यहां तपस्या की थी। कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था।
आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजय में स्थापित शिवलिंग को कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएंपूरी नहीं होती केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी हो सकती हैं।

ऐसे समझें उत्पत्ति की कथा...
मान्यता है कि शिव ने दक्ष प्रजापति का यज्ञ विध्वंस कर सबका नाश कर दिया और चिता की भस्म से शरीर को आच्छादित कर झांकर सैम ( जागेश्वर से करीब 5 कि०मी० गरुड़ाबांज नामक स्थान पर) में तपस्या की। झांकर सैम को तब भी देवदार वन से आच्छादित बताया गया है। झांकर सैम जागेश्वर पर्वत में है। कुमाऊं के इस वन में वशिष्ठ मुनि अपनी पत्नियों के साथ रहते थे।
एक दिन स्त्रियों ने जंगल में कुशा और समिधा एकत्र करते हुये शिव को राख मले नग्नावस्था में तपस्या करते देखा, गले में सांप की माला थी, आंखें बंद, मौन धारण किये हुये, चित्त उनका काली के शोक से संतप्त था। स्त्रियां उनके सौन्दर्य को देखकर उनके चारों ओर एकत्र हो गईं, सप्तॠषियों की सातों स्त्रियां जब रात में ना लौटी तो वे प्रातःकाल उनको ढूंढने को गये, देखा तो शिव समाधि लिये बैठे है और स्त्रियां उनके चारों ओर बेहोश पड़ी हैं।
ॠषियों ने यह विचार कर लिया कि शिव ने उनकी स्त्रियों की बेइज्जती की है और शिव को श्राप दिया कि जिस इन्द्रिय यानी वस्तु से तुमने यह अनौचित्य किया है वह (लिंग) भूमि में गिर जाएगा, तब शिव ने कहा कि तुमने मुझे अकारण ही श्राप दिया है, लेकिन तुमने मुझे सशंकित अवस्था में पाया है, इसलिये तुम्हारे श्राप का मैं विरोध नहीं करुंगा, मेरा-लिंग पृथ्वी में गिरेगा। तुम सातों भी सप्तर्षि तारों के रुप में आकाश में लटके हुए चमकोगे।
ऐसे हुई शिवलिंग की उत्पत्ति...
अतः शिव ने श्राप के अनुसार अपने-लिंग को पृथ्वी में गिराया, और सारी पृथ्वी-लिंग से ढक गई, गंधर्व व देवताओं ने महादेव की तपस्या की और उन्होंने-लिंग का नाम यागीश या यागीश्वर कहा और वे ऋषि सप्तर्षि कहलाये।
श्राप के कारण शिव का-लिंग जमीन पर गिर गया और सारी पृथ्वी-लिंग के भार से दबने लगी, तब ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, सूर्य, चंद्र और अन्य देव जो जागेश्वर में शिव की स्तुति कर रहे थे, अपना-अपना अंश और शक्तियां वहां छोड़कर चले गए, देवताओं ने-लिंग का आदि अंत जानने का प्रयास किया, ब्रह्मा, विष्णु और कपिल मुनि भी इसका उत्तर न दे सके, विष्णु पाताल तक भी गए लेकिन उसका अंत न पा सके, तब विष्णु शिव के पास गये औए उनसे अनुनय विनय के बाद यह निश्चय हुआ कि विष्णु-लिंग को सुदर्शन चक्र से काटें और उसे तमाम खंडों में बांट दें। अंततः जागेश्वर में-लिंग को काटा गया और उसे नौ खंडों में बांटा गया तथा शिव की पूजा-लिंग रुप में शुरु की गई।
यह नौ खंड इस प्रकार हैं...
1- हिमाद्रि खंड
2- मानस खंड
3- केदार खंड
4- पाताल खंड- जहां नाग लोग-लिंग की पूजा करते हैं।
5- कैलाश खंड
6- काशी खंड- जहां विश्वनाथ जी हैं, बनारस
7- रेवा खंड- जहां रेवा नदी है. जहां पर नारदेश्वर के रुप में-लिंग पूजा होती है, शिवलिंग का नाम रामेश्वरम है।
8- ब्रह्मोत्तर खंड- जहां गोकर्णेश्वर महादेव हैं, कनारा जिला मुंबई।
9- नगर खंड- जिसमें उज्जैन नगरी है।
जानकारों के अनुसार इससे भी यह सिद्ध होता है कि महादेव की-लिंग रुप में पूजा जागेश्वर से ही प्रारम्भ हुई।
Aaj Ki Delhi.in/ The 24x7 news/ Indian news Online/ Prime News.live/Astro Dharm/ Yograaj Sharma/ 7011490810
 एस्ट्रो धर्म :



होली का पर्व देशभर के हर हिस्से में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। होली की धूम और प्रसिद्धि की बात की जाए तो ब्रज की होली विश्वभर में बहुत प्रसिद्ध है। ब्रज की होली की परंपराएं बहुत ही अनोखी व जीवंत मानी जाती है। बरसाना की लट्ठमार होली का त्योहार देखने लाखों लोग यहां आते हैं। वहीं बरसाना में कटारा हवेली स्थित एक मंदिर है ब्रज दूलह मंदिर जहां ब्रज की राधा स्वरुप हरियारी कृष्ण को लाठियां मारती हैं। यहां की परंपरा अनुसार आज भी श्री कृष्ण की लाठियों से पिटाई होती है।

यहां सिर्फ महिलाएं करती है पूजा
बरसाना के कटारा हवेली स्थित ब्रज दूलह मंदिर बहुत प्रसिद्ध मंदिर है। मंदिर की खासियत है की यहां सिर्फ महिलाएं ही पूजा करती हैं। मान्यताओं के अनुसार यह मंदिर रूपराम कटारा ने बनवाया था। इसलिये यहां आज भी उनके परिवार की महिलाएं ब्रज दूलह के रूप में विराजमान भगवान श्री कृष्ण की पूजा करती हैं और यही नहीं यह मंदिर ब्रज का इकलौता ऐसा मंदिर है जहां श्री विग्रह कृष्ण को लाठियां मारी जाती है।
कटारा परिवार आज भी करता है नंदगांव के हुरियारे का स्वागत
लठामार होली वाले दिन नंदगांव के हुरियारे कटारा हवेली पहुंच कर श्रीकृष्ण से होली खेलने को कहते हैं। कटारा परिवार द्वारा हुरियारों का स्वागत किया जाता है। उनको भाग और ठंडाई पिलाई जाती है। ब्रज दूलह मंदिर की सेवायत की राधा कटारा ने बताया कि भगवान श्री कृष्ण कटारा हवेली में ब्रज दूलह के रूप में विराजमान हैं। यहां सभी व्यवस्थाएं महिलाएं करती हैं। होली के दिन लठामार होली की शुरुआत ब्रज दूलह के साथ होली खेलते हुए होती है।
इसलिये यहां का नाम ब्रज दूलह पड़ गया
पौराणिक मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण गोपियों को कई तरह से परेशान किया करते थे। कभी उनकी मटकी फोड़ देते तो कभी माखन चुरा कर खा लेते थे। एक बार बरसाना की गोपियों ने कृष्ण को सबक सिखाने की योजना बनाई। उन्होंने कृष्ण को उनके सखाओं के साथ बरसाना होली खेलने का न्यौता दिया। श्रीकृष्ण और ग्वाल जब होली खेलने बरसाना पहुंचे तो उन्होंने देखा कि बरसाना की गोपियां हाथ में लाठियां लेकर खड़ी हैं। लाठियां देख ग्वाल-बाल भाग गए। जब श्रीकृष्ण अकेले पड़ गए तो गायों के खिरक में जा छिपे। जब गोपियों ने कान्हा को ढूंढा और यह कह कर बाहर निकाला कि ‘यहां दूल्हा बन कर बैठा है, चल निकल बाहर होली खेलते हैं’। इसके बाद गोपियों ने श्रीकृष्ण के साथ जमकर होली खेली। तभी से भगवान का एक नाम ब्रज दूलह भी पड़ गया।
Aaj Ki Delhi.in/ The 24x7 news/ Indian news Online/ Prime News.live/Astro Dharm/ Yograaj Sharma/ 7011490810
एस्ट्रो  धर्म :



मंदिरों से लोगों की आस्था जुड़ी होती है और भारत देश में कई प्रमुख मंदिर हैं। ये प्रसिद्ध मंदिर बहुत ही प्राचीन और अनोखे मंदिर भी हैं। मान्यताओं के अनुसार इन मंदिरों में लोग अपनी मनोकामना लेकर आते हैं और उन्हें पूरी होने का आशीर्वाद लेकर जाते हैं।
वहीं भारत के अद्भुत मंदिरों में से एक मंदिर ऐसा भी है जहां लोग अपनी गंभीर बीमारियों से छुटकारा पाने के लिये आते हैं। हालांकि चिकित्सकों का इस मामले में कुछ कहना नहीं है। ऐसे ही कुछ अनोखे मंदिरों के बारे में बताते हैं जो व्यक्ति की हर समस्या का समाधान कर देते हैं...
नवाबगंज, उन्नाव की कुछ दूरी पर ही मां दुर्गा और कुशहरी मंदिर बहुत ही प्रसिद्ध मंदिर हैं। इन मंदिरों में दुर्गा मां की प्रतिमा और उनका विग्रह रुप बहुत ही मनमोहक है। श्रृद्धालुओं के अनुसार दोनों मंदिरों में स्थापित देवी मां की प्रतिमाएं एक जैसी हैं, मानों दोनों जुड़वा बहने हैं। लेकिन आपको बता दें की कुशहरी देवी मंदिर परिसर में एक सुंदर सरोवर है जो कि गऊ घाट झील में मिलती है। इस मंदिर में आने वाले भक्त सरोवर के दर्शन पाकर स्वयं को धन्य मानते हैं।

मंदिर के बारे में लोगों का कहना हे कि स्‍थानीय निवासी बताते हैं कि, कुशहरी देवी सभी प्रकार के रोगों से भी मुक्ति दिलाती हैं। इसी क्रम में एक उल्‍लेख मिलता है उन्‍नाव के पुरवा निवासी एक नर्तकी के शरीर में लकवा मार गया था। कई जगह इलाज करवाने के बावजूद वह सही नहीं हो पाई तब वह माता कुशहरी के मंदिर आई। माता से प्रार्थना की और कुछ ही दिनों में वह स्‍वस्‍थ हो गई। इसके बाद उसने मंदिर के जीर्णोद्धार भी करवाया।

पधाई माता मंदिर, शिमला
ऐसा ही एक चमत्कारी मंदिर शिमला के दुधली नामक जगह पर स्थित है। यहां देवी मां का एक चमत्कारी मंदिर स्थापित है। जो की पधाई माता मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। यह मंदिर पधाई नामक पहाड़ी पर स्थित है, इसलिए इसे पधाई माता मंदिर कहा जाता है। मंदिर को लेकर कहानी मिलती है कि, एक बार एक स्‍थानीय निवासी को देवी मां ने स्‍वप्‍न में पिंडी रूप में दर्शन दिए थे। इसके बाद उसे एक जगह विशेष पर खुदाई करने का आदेश दिया। साथ ही यह भी कहा कि वह उसी स्‍थान पर मां का जलाभिषेक भी करें।
अगले दिन वह उठते ही उस स्थान पर पहुंचा, जो मातारानी ने जगह बताई थी। वहां पर उसने देखा कि जिस पिंडी के उसने सपने में दर्शन किए थे। सामने वही पिंडी विराजमान थी। इसके बाद उसने मां को प्रणाम करके स्‍वप्‍न में बताई गई जगह पर खुदाई करनी शुरू की। बताते हैं कि उस स्‍थान पर जल की धारा निकली। जिससे उसने मां की पूजा-अर्चना की और फिर उसी स्‍थान पर मंदिर का निर्माण हो गया। तब से उसी जल से मां का जलाभिषेक किया जाता है। यही नहीं मान्‍यता है कि जो भी सच्‍ची श्रद्धा से मां को यह जल अर्पित करता है। साथ ही इससे स्‍नान करता है उसके सभी रोग दूर हो जाते हैं।
पातालेश्वर शिव मंदिर, मुरादाबाद
मुरादाबाद-आगरा राजमार्ग पर सद्ध्दी गांव में एक शिव मंदिर स्थापित है। यह शिव मंदिर करीब 150 साल पुराना है। इस मंदिर को पातालेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है। यहां शिवलिंग पर दूध-दही और झाडू चढ़़ाया जाता है। माना जाता है कि इससे अगर किसी व्यक्ति को त्वचा रोग हैं तो वो दूर हो जाते हैं। शिव जी को झाडू चढ़ाने से त्वचा रोग से संबंधित सभी समस्याएं खत्म हो जाती है। स्‍थानीय लोग बताते हैं कि भोले की ऐसी महिमा है कि झाड़ू चढ़ाते ही गंभीर से गंभीर बीमारी सही हो जाती है।
इसलिये चढ़ाई जाती है झाडू
भिखारीदास नाम का एक व्‍यापारी था जो कि गंभीर रूप से त्‍वचा की बीमारी से परेशान था। एक दिन वह दवा के लिए किसी दूसरे शहर जा रहा था। उसी समय उसके रास्‍ते में यह गांव पड़ा। भिखारीदास को प्‍यास लगी थी तो वह सामने स्थित आश्रम में गया। जहां पर महंत आश्रम की सफाई कर रहे थे और उनकी झाड़ू उस व्‍यापारी को छू गई। इसके बाद उसकी त्‍वचा की सारी बीमारी ठीक हो गई। इसके बाद भिखारीदास ने उस स्‍थान पर शिवालय का निर्माण करवा दिया। धीरे-धीरे यह मान्‍यता हो गई कि मंदिर में झाड़ू चढ़ाने से त्‍वचा रोग से मुक्ति मिल जाती है।
Aaj Ki Delhi.in/ The 24x7 news/ Indian news Online/ Prime News.live/Astro Dharm/ Yograaj Sharma/ 7011490810