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ऐस्ट्रो  धर्म : 



भगवान संतुलन बनाते है, इसलिए हमें सृष्टि अच्छी लगती है। संतुलित और खुश रहना ही साधना के पथ पर चलने वालों के जीवन की कला होती है। उन्होंने कहा कि हर कोई सपाट जिंदगी चाहता है, मगर जीवन का पथ कभी ऐसा नहीं होता। जीवन में जब तक ऊंचा—नीचा या उतार—चढ़ाव है, तब तक ही जिंदगी है। यह उदबोधन विश्व जागृति मिशन के संस्थापक आचार्य सुधांशु ने रविवार को जवाहरनगर स्थित माहेश्वरी पब्लिक स्कूल सभागार में गुरुमंत्र सिद्धि कार्यक्रम में व्यक्त किए। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में मौजूद लोगों को मंत्र साधना के गुर सिखाए। उन्होंने कहा कि जीवन में सब कुछ मनचाहा नहीं मिलता, अनचाहा भी मिलता है। अनचाहे को मनचाहे में बदल लेना ही जीवन की कला है, जिसे साधना के पथ पर चलने वालों को अपनाना अनिवार्य है। कार्यक्रम में साधकों ने स्वरों में ओंकार का गहन अभ्यास किया। प्राणयाम के साथ ओंकार की ध्वनि, अनुलोम विलोम प्राणायाम के साथ—साथ श्वास—श्वास में गुरुमंत्र और 'ऊं नम' शिवाय' मंत्र के प्रयोग का भी सभी को अभ्यास कराते हुए कहा कि प्राणायाम के साथ जाप भी हो जाए तो इससे जीवन में कमाल होने लगेगा।
आचार्य ने शरीर में मौजूद तीन शक्ति् केन्द्रों की विस्तृत व्याख्या की। न्यायमूर्ति दीपक माहेश्वरी तथा विश्व जागृति मिशन जयपुर मंडल प्रधान मदनलाल अग्रवाल, उप प्रधान नारायण दास गंगवानी सहित अन्य लोग मौजूद रहे।

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एस्ट्रो धर्म :


भगवान शिव को सनातन धर्म के प्रमुख देवों में से एक माना गया है। आदि पंच देवों में जहां महादेव को खास स्थान प्राप्त है वहीं देवाधिदेव को संहार का देवता माना जाता है। सोमवार का दिन भगवान शिव का प्रमुख दिन माना गया है, ऐसे में आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं, जो कई मायनों में खास है। यहां तक की माना जाता है कि इस शिवलिंग की रखवाली खुद नाग करते हैं।
हम बात कर रहे हैं मध्यप्रदेश के ग्वालियर में स्थित भगवान शिव के उस धाम की जहां स्वयं नागों ने शिवलिंग की रक्षा के लिए मुगल सैनिकों पर तक हमला कर दिया था।
जानकारों के अनुसार ग्वालियर शहर में कोटेश्वर महाराज का मंदिर पूरे अंचल की आस्था का केन्द्र है। मंदिर में जो शिवलिंग है वो दिव्य है और सदियों पुराना है। कोटेश्वर महादेव के शिवलिंग को तोडऩे की कोशिश तत्कालीन मुगल बादशाह औरंगजेब ने भी की थी, लेकिन वो इसका कुछ नहीं बिगाड़ सके। बताया जाता है कि औरंगजेब के इस हमले के दौरान नागों ने शिवलिंग की रक्षा की थी।
ऐसे मिला कोटेश्वर महादेव नाम
कोटेश्वर महादेव का मंदिर पहले ग्वालियर दुर्ग पर स्थित था। 17 वीं शताब्दी में मुगल शासक औरंगजेब जब हिन्दू देवी देवताओं के मंदिर को तहस-नहस कर रहा था, तो ग्वालियर दुर्ग स्थित यह प्राचीन मंदिर भी उनके निशाने पर था। औरंगजेब की इस बर्बरता का शिकार कोटेश्वर महादेव मंदिर भी हुआ।
हमले के बावजूद शिवलिंग को नुकसान नहीं पहुंचा पाए औरंगजेब के सैनिक...
कहा जाता है कि जब औरंगजेब के सैनिक मंदिर को लूट रहे थे और तभी नागों ने इस दिव्य शिवलिंग को अपने घेरे में ले लिया, जिससे सैनिक शिवलिंग को नुकसान नहीं पहुंचा पाए।
लोगों के अनुसार मंदिर उजाड़ने का आदेश औरंगजेब ने अपने सैनिकों को दिया था। सैनिकों ने बाबा के मंदिर से शिवलिंग को उखाड़ने का प्रयास किया जिसके बाद वहां पर सैकड़ों की संख्या में नाग पहुंच गए और उन्होंने सैनिकों को डंस लिया था।
इसके बाद ये शिवलिंग दुर्ग से हटकर किले की कोटे में आ गिरा। किले के कोटे में शिवलिंग मिलने के कारण शिवलिंग को कोटेश्वर महादेव कहा गया।
जीवाजी राव सिंधिया ने करवाया था भव्य मंदिर का निर्माण
औरंगजेब के हमले के बाद कोटेश्वर मंदिर में रखा शिवलिंग सदियों तक किले की तलहटी में दबा रहा। मंदिर से जुड़े लोग बताते हैं कि संत देव महाराज को स्वप्न में नागों के द्वारा रक्षित मूर्ति के दर्शन हुए, उनके कानों में उसे बाहर निकलवा कर पुनस्र्थापित किए जाने का आदेश गूंजा। महंत देव महाराज के अनुरोध पर जीवाजी राव सिंधिया ने किला तलहटी में पड़े मलवे को हटा कर प्रतिमा को निकाला और संवत 1937-38 में मंदिर बनवा कर उसमें मूर्ति की पुन:प्रतिष्ठा करवाई।
ये भी है खास...
वहीं पूर्व में जब किले पर स्थित शिव मंदिर में अभिषेक होता था, तो यह जल मंदिर से नीचे बने एक छोटे से कुंड में एकत्रित होता था। इस कुंड से पाइप लाइन से यह पानी बहकर नीचे आता था। जो कि एक बड़े कुंड में एकत्रित होता था। इस कुंड में नीचे तक जाने की किसी को इजाजत नहीं थी।
जिसे भी अभिषेक किए गए जल का प्रसाद लेना होता था वह सीढ़ियों पर खड़े होकर जल ग्रहण कर लेता था। यहां से यह जल किले की पहाड़ी में वाटर हार्वेस्टिंग के जरिए पहुंचता था। वहीं वर्तमान में कोटेश्वर महादेव मंदिर के ठीक पीछे पहले बंजारों का शिव मंदिर और दो बावड़ी थीं। औरगंजेब ने इस मंदिर से शिवलिंग को निकालकर इसी बावड़ी में फेंक दिया था, यह बावड़ी लगभग 12 मंजिला गहरी है।
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ऐस्ट्रो धर्म 

अब तक जो सूचना सामने आ रही है उसके अनुसार 29 अप्रैल 2020 को भगवान शिव के एक ऐसे ज्योतिर्लिंग कपाट खुलने जा रहे हैं, जिन्हें जागृत महादेव माना जाता है। माना जाता है कि इस मंदिर में शिव आज भी जागृत अवस्था में हैं और समय समय पर भक्तों की मदद के लिए अपने चमत्कार दिखाने के साथ ही भक्तों को दर्शन भी देते हैं।
इस मंदिर का द्वार आम दर्शनों के लिए मेष लग्न में सुबह 6:10 पर खोला जाएगा। इसके बाद छह माह तक अराध्य की पूजा-अर्चना धाम में ही होगी। दरअसल हम बात कर रहे हैं भगवान शिव के 11वें ज्योतिर्लिंग केदारनाथ की।
इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने के लिए भक्त करीब 6 माह तक का इंतजार करते हैं। यहां की चढ़ाई को बेहद ही मुश्किल माना जाता है, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि भोले बाबा जिसे दर्शन देने की ठान लेते हैं उसे दर्शन देकर ही रहते हैं। इसी बात से जुड़ी भगवान शिव के एक भक्त की कहानी है, जिसके बाद से केदरनाथ को जागृत महादेव कहा जाने लगा।
केदारनाथ को ‘जागृत महादेव’ कहा जाता है। इसके पीछे एक प्रसंग प्रचलित है। प्रसंग के मुताबिक,बहुत समय पहले एक बार एक शिव-भक्त अपने गांव से केदारनाथ धाम की यात्रा पर निकला। पहले यातायात की सुविधाएं तो थी नहीं वह पैदल ही निकल पड़ा। रास्ते में जो भी मिलता उससे केदारनाथ का मार्ग पूछ लेता और मन में भगवान शिव का ध्यान करता रहता। चलते चलते उसको केदारनाथ धाम तक पहुंचने में महीनों लग गए।
आखिरकार एक दिन वह केदार धाम पहुंच ही गया। केदारनाथ में मंदिर के द्वार 6 महीने खुलते है और 6 महीने बंद रहते हैं। भक्त जब वहां पहुंचा तो उस समय केदारनाथ के द्वार 6 महीने के लिए बंद हो रहे थे। परंपरा के मुताबिक दोबारा ये द्वार 6 महीने के बाद ही खुलते।
भक्त ने पंडित जी से इस बात का अनुरोध किया कि द्वार खोल दिए जाएं ताकि वह प्रभु के दर्शन कर सके, लेकिन पंडित जी ने परंपरा का पालन करते हुए द्वार को बंद कर दिए, क्योंकि वहां का तो नियम है एक बार द्वार बंद तो बंद।
इससे भक्त बहुत निराश हुआ और रोने लगा। इसके बाद वह बहुत रोया। बार-बार भगवन शिव को याद किया कि प्रभु बस एक बार दर्शन करा दो। वह प्रार्थना कर रहा था सभी से लेकिन उसकी किसी ने भी नहीं सुनी।

शिव भक्त को मिलें सन्यासी बाबा...
पंडित जी ने भक्त से कहा कि वह अपने घर चला जाए और दोबारा 6 महीने के बाद आए। लेकिन भक्त ने उनकी बात नहीं मानी और वहीं पर खड़ा होकर शिव का कृपा पाने की उम्मीद करने लगा। रात में समय भूख-प्यास से उसका बुरा हाल हो गया। इसी दौरान उसने रात के अंधेरे में एक सन्यासी बाबा के आने की आहट सुनी।
बाबा के आने व पूछने पर भक्त ने उनसे समस्त हाल कह सुनाया। फिर बहुत देर तक बाबा उससे बातें करते रहे। बाबा जी को उस पर दया आ गई। वह बोले, “बेटा मुझे लगता है, सुबह मन्दिर जरुर खुलेगा। तुम दर्शन जरूर करोगे।'' इसके कुछ समय बातों-बातों में इस भक्त को ना जाने कब गहरी नींद आ गई।
सुबह सूर्य के मद्धिम प्रकाश के साथ भक्त की आंख खुली। उसने इधर उधर बाबा को देखा किन्तु वह कहीं नहीं थे। इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता उसने देखा पंडित आ रहे है अपनी पूरी मंडली के साथ। उस ने पंडित को प्रणाम किया और बोला कल आप ने तो कहा था मन्दिर 6 महीने बाद खुलेगा? इस बीच कोई नहीं आएगा यहां लेकिन आप तो सुबह ही आ गये।
गौर से देखने पर पंडित जी ने उस भक्त को पहचान लिया औरपुछा, तुम वही हो जो मंदिर का द्वार बंद होने पर आये थे? जो मुझे मिले थे। 6 महीने होते ही वापस आ गए!
उस आदमी ने आश्चर्य से कहा नहीं, मैं कहीं नहीं गया। कल ही तो आप मिले थे रात में मैं यहीं सो गया था। मैं कहीं नहीं गया। पंडित के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। उन्होंने कहा लेकिन मैं तो 6 महीने पहले मंदिर बन्द करके गया था और आज 6 महीने बाद आया हूं। तुम 6 महीने तक यहां पर जिन्दा कैसे रह सकते हो? पंडित और सारी मंडली हैरान थी।
इतनी सर्दी में एक अकेला व्यक्ति कैसे 6 महीने तक जिन्दा रह सकता है। तब उस भक्त ने उनको सन्यासी बाबा के मिलने और उसके साथ की गई सारी बाते बता दी कि एक सन्यासी आया था लम्बा था, बढ़ी-बढ़ी जटाये, एक हाथ में त्रिशुल और एक हाथ में डमरू लिए, मृग-शाला पहने हुआ था।
पंडित जी समझ गए कि इस भक्त से उस रात स्वयं शिव जी ही मिलने आए थे। यही वजह है कि केदारनाथ को ‘जागृत महादेव’ कहा जाता है।
इसके बाद पंडित और सब लोग उसके चरणों में गिर गये। बोले हमने तो जिंदगी लगा दी किन्तु प्रभु के दर्शन ना पा सके सच्चे भक्त तो तुम हो। तुमने तो साक्षात भगवान शिव के दर्शन किए हैं। उन्होंने ही अपनी योग-माया से तुम्हारे 6 महीने को एक रात में परिवर्तित कर दिया। काल-खंड को छोटा कर दिया। यह सब तुम्हारे पवित्र मन और तुम्हारे विश्वास के कारण ही हुआ है।
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ऐस्ट्रो धर्म



हर इंसान की चाहत धनवान बनने की होती है। इसके लिए कुछ लोग सही तरीके अपनाते हैं तो कुछ लोग गलत। वहीं कुछ लोग सोचते हैं कि कई उपाय मिल जाए, जिससे वे जल्दी से धनवान बन जाएं। आज हम आपको कुछ मंत्र और सूक्त बताने जा रहे हैं, जिसे करने पर हर काम में उन्नति होगी और धन आगमन में आने वाली बाधाएं दूर होगी। माना जाता है कि इन मंत्र और सूक्तों का पाठ करने से इंसान कम समय में ही धनवान बन जाता है।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि माता लक्ष्मी धन की देवी हैं। माना जाता है कि जिस घर में पर मां लक्ष्मी की कृपा होती है, उस घर में धन-दौलत की कमी नहीं रहती है।

हमारे धर्म शास्त्रों में भी बताया गया है कि जिस स्थान पर नियमित श्री सूक्त का पाठ किया जाता है, वहां पर देवी लक्ष्मी का वास होता है। इसके अलावा जो भी श्री सूक्त का सुबह-शाम पाठ करता है, उसके पास कभी भी धन की कमी नहीं रहती है, ना ही कोई काम अटकता है।

मंत्र: ऊं श्री ऊँ ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराय नम:
इस मंत्र के बारे में कहा जाता है कि यह मंत्र भगवान कुबेर का है और यह सिद्ध मंत्र है। जैसा कि हम सभी सभी जानते हैं कि कुबेर भगवान के कोषाध्यक्ष हैं। माना जाता है कि इस मंत्र का नियमित जाप करने से अचानक धन का लाभ मिलता है।

इसके अलावा किसी तरह की धन संबंधी परेशानी चल रही है तो 'ऊँ वैश्रवाय स्वाहा' मंत्र का जाप करें। माना जाता है कि इस मंत्र का हर दिन 108 बार जाप किया जाए तो धनागमन में आने वाली किसी भी तरह की परेशानियां दूर हो जाएंगी।
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ACHARYA RAM GOPAL SHUKLA | ASTRO DHARM | The Laxminarayan Temple, also known as the Birla Mandir is a Hindu temple up to large extent dedicated to Laxminarayan in Delhi, India. Laxminarayan usually refers to Vishnu, Preserver in the Trimurti, also known as Narayan, when he is with his consort Lakshmi. The temple, inaugurated by Mahatma Gandhi, was built by Jugal Kishore Birla[1] from 1933 and 1939. The side temples are dedicated to Shiva, Krishna and Buddha.[2] It was the first large Hindu temple built in Delhi. The temple is spread over 7.5 acres, adorned with many shrines, fountains, and a large garden with Hindu and Nationalistic sculptures, and also houses Geeta Bhawan for discourses. The temple is one of the major attractions of Delhi and attracts thousands of devotees on the festivals of Janmashtami and Diwali. The construction of temple dedicated to Laxmi Narayana started in 1933, built by industrialist and philanthropist, Baldeo Das Birla and his son Jugal Kishore Birla of Birla family, thus, the temple is also known as Birla Temple. The foundation stone of the temple was laid by Jat Maharaj Udaybhanu Singh. The temple was built under guidance of Pandit Vishwanath Shastri.[3] The concluding ceremony and Yagna was performed by Swami Keshavanandji.[4] The famous temple is accredited to have been inaugurated by Mahatma Gandhi in 1939. At that time, Mahatma Gandhi kept a condition that the temple would not be restricted to the upper-caste Hindus and people from every caste would be allowed inside.[2][5] This is the first of a series of temples built by the Birlas in many cities of India, which are also often called Birla Temple.Its architect was Sris Chandra Chatterjee, a leading proponent of the "Modern Indian Architecture Movement."[6] The architecture was influenced heavily by the principles of the Swadeshi movement of the early twentieth century and the canonical texts used. The movement did not reject the incorporation of new construction ideas and technologies. Chatterjee extensively used modern materials in his buildings. The three-storied temple is built in the northern or Nagara style of temple architecture. The entire temple is adorned with carvings depicting the scenes from golden yuga of the present universe cycle. More than hundred skilled artisans from Benares, headed by Acharya Vishvanath Shastri, carved the icons of the temple. The highest shikhara of the temple above the sanctum sanctorum is about 160 feet high. The temple faces the east and is situated on a high plinth. The shrine is adorned with fresco paintings depicting his life and work. The icons of the temple are in marble brought from Jaipur. Kota stone from Makarana, Agra, Kota, and Jaisalmer was used in the construction of the temple premises. The Geeta Bhawan to the north of the temple is dedicated to Lord Krishna. Artificial landscape and cascading waterfalls add to the beauty of the temple. The main temple houses statues of Lord Narayan and Goddess Lakshmi. There are other small shrines dedicated to Lord Shiva, Lord Ganesha and Hanuman. There is also a shrine dedicated to Lord Buddha. The left side temple shikhar (dome) houses Devi Durga, the goddess of Shakti, the power. The temple is spread over an area of 7.5 acres (30,000 m2) approximately he temple is located on the Mandir Marg, situated west of the Connaught Place in New Delhi. The temple is easily accessible from the city by local buses, taxis and auto-rickshaws. Nearest Delhi Metro station is R. K. Ashram Marg metro station, located about 2 km away. Also on the same road lies the New Delhi Kalibari.

खबर - पंकज पोरवाल
भीलवाड़ा। श्री मनोकामनापूर्ण बालाजी सेवा समिति, छोटी हरणी की और से आयोजित “नानी बाई रो मायरो” कथा के द्वितीय दिवस पर कथा प्रवक्ता सुश्री जया किशोरी जी ने धर्मसभा को को संबोधित करते हुए की भगवान को पाने के लिए आज के समय में निष्काम भक्ति बहुत जरुरी हे, आज के समय में लोग प्रभु को केवल अपना कार्य पूरा कराने के लिए याद करते और अपना कार्य पूरा होते ही प्रभु को भूल जाते हे | भक्ति बिना स्वार्थ की होनी चाहिए, निस्वार्थ भक्ति से ही प्रभु की प्राप्ति संभव हे |
पूज्या जी ने कृष्ण सुदामा मिलन प्रसंग का वाचन वाचन करते हुए कहा की मित्रता हो तो सुदामा और कन्हैया के जैसी होनी चाहिए जोकि एक दुसरे की परिस्थिति को बखूबी समझते हो | आपका भगवान पर इतना अटूट विश्वास होना चाहिए कि आपका कोई भी कार्य हो प्रभु पर छोड़ दे और ये विश्वास रखे कि भगवान जो भी करेंगे अच्छा ही करेंगे, उसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता हे | भगवान को अपने वश में करने का मंत्र बताते हुए कहा की प्रेम ही एकमात्र ऐसा जरिया हे जिससे प्रभु को बड़े ही आसानी से पाया जा सकता हे, अपने वशीभूत किया जा सकता हे |
समिति उपाध्यक्ष छगनलाल जैन ने बताया की आज के मायरे की शुरुआत मुख्य अतिथि जिला प्रमुख शक्ति सिंह हाडा, कंचन इंडिया के श्री लादूलाल बांगड़, प्रदीप मोहन शर्मा, गोपाल स्वरुप मेवाड़ा, गोपाल शर्मा (गोपी दादा), ने दीप प्रज्वलित कर की व मायरे के अंत में लाल बाबा, श्री प्रकाशानंद जी महाराज, बब्बू बन्ना, जोनी बन्ना, मधुसुदन शर्मा, शिव सेना राज्य प्रमुख आशीष जोशी, शम्भू लाल तेली ने महाआरती कर कथा को विराम दिया | कथा में आज पूज्या जया किशोरी जी ने राधे, राधे, गोविन्द राधे..., अरे द्वारपालों कन्हैया से कह दो..., भगत के वश में हे भगवान..., सांवरिया रे आगे खड़ा हु कर जोड़..., बात मेरी मानले..., गाडी में बिठाले रे कान्हा..., आदि भजनों पर श्रद्धालु झूम उठे | कथा के दौरान कृष्ण सुदामा मिलन, भक्त के वश में हे भगवान भजन, नरसी जी का अंजार नगर की और प्रस्थान आदि प्रसंगों की जीवंत व अनोखी झांकिया प्रदर्शित की गयी | आज मायरे में कृष्ण सुदामा मिलन, नरसी जी का अंजार नगर प्रस्थान आदि प्रसंगों का वाचन जया किशोरी जी द्वारा मारवाड़ी भाषा में किया गया | कथा में अंतिम दिवस अर्थात कल नानी बाई का मायरा भरा जायेगा | मायरे का सञ्चालन सुश्री हंसा व्यास द्वारा किया गया | कथा के दौरान आज विश्व नव निर्माण सेना के सेवा प्रकल्प माता पिता की सेवा का पोस्टर पूज्या जया किशोरी जी द्वारा किया गया | नानी बाई को मायरो कथा का आयोजन 25 से 27 अक्टूम्बर 2017 तक दोपहर 1 से 5 बजे तक छोटी हरणी स्थित काठिया बाबा आश्रम में किया जा रहा हे | 27 अक्टूबर को शाम को भी भीलवाड़ा के स्थानीय कलाकार श्री आशुतोष जी सोनी, मास्टर सुनील, दिनेश मानसिंहका के द्वारा भव्य भक्ति संध्या आयोजित की जाएगी |
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एस्ट्रो धर्म। स्त्री का मातृत्व ही उसकी महत्ता का द्योतक है। अत: गर्भधारण संस्कार अत्यधिक गौरवशाली संस्कार माना गया है।

गर्भ: सन्धार्यते येन कर्मणा तत् गर्भाधानम्।
गृहस्थ जीवन की सार्थकता संतानोत्पत्ति में ही मानी गई है, क्योंकि इसी से तो सृष्टि का विकास होता है। अत: गर्भाधान संस्कार में सात्त्विकता एवं तामसिकता का ध्यान रखना चाहिए। माता-पिता की प्रवृत्ति का प्रभाव ही उनकी भावी पीढ़ी पर पड़ेगा।
2. पुंसवन संस्कार
गर्भस्थ शिशु पर माता-पिता, परिवार एवं वातावरण का प्रभाव अवश्य पड़ता है। महाभारत का अभिमन्यु तो गर्भावस्था में ही अपने पिता अर्जुन द्वारा बताए चक्रव्यूह-भेदन की क्रिया को सीख गया था। अत: गर्भस्थ शिशु के कल्याण के लिए गर्भवती मां को पौष्टिक व सात्त्विक आहार के साथ सुसंस्कारक साहित्य, शास्त्रोक्त सदुपदेश, चरित्र, आचरण के निखार विषयक कथाएं सुनानी चाहिए। यह संस्कार गर्भाधान के तीसरे या चौथे महीने में किया जाता है—
गर्भे तृतीये तु मासि पुंसवनं भवेत्।
3. सीमंतोन्नयन संस्कार
गर्भस्थ शिशु को किसी प्रकार की क्षति न हो। बाह्य आपदाएं, पैशाचिक प्रकोप अथवा इसी प्रकार की अन्य आकस्मिक शिशु घातक घटनाओं से बचाने के प्रयास के क्रम में इस संस्कार की महत्ता है। प्राय: असामयिक गर्भपात की घटनाएं सुनने में आती हैं। वैसे भी गर्भावस्था में स्त्रियां कहीं दूर आना-जाना पसंद नहीं करतीं, जबकि भूत-प्रेत बाधा का डर भी रहता है। अत: गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता इस संस्कार में दिए जाने का संकेत लक्षित होता है। गर्भस्थ शिशु की दीर्घायु एवं सुरक्षा के विषय में तो बताया गया है—
सीमन्तोन्नयनं कार्य तत्स्त्री संस्कार इष्यते।
यह संस्कार छठे या आठवें महीने में किए जाने का प्रावधान है, क्योंकि तब तक शिशु उदर में चलने लगता है। इस संस्कार मे गर्भवती स्त्री के केश संवारने के भाव से यही प्रतीत होता है कि उसकी देख-रेख बड़ी सावधानी से की जानी चाहिए। अधिक श्रम, रात्रि-जागरण, दिवा-शयन आदि न करें।
4. जातकर्म संस्कार
नवजात शिशु के मुख में घी-मधु का स्पर्श कराते हैं। इसी के साथ यह मंत्र-वाचन भी किया जाता है— 
मन्त्रवत्प्राशनं चास्य हिरण्यमधुसर्पिषाम्।

शिशु के कान में भी दीर्घायु-यशस्वी होने के लिए मंत्र पढ़े जाते हैं। नवजात शिशु के नाल-छेदन (नाल काटने की) क्रिया की जाती है, जच्च-बच्चा की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाता है।
5. नामकरण संस्कार
शिशु के नामकरण संस्कार के विषय में शास्त्रोक्त कथन है-
एकादशे अहनि पिता नाम कुर्यादिति।
जन्म के ग्यारहवें दिन नवजात शिशु का नामकरण होना चाहिए। नामकरण संस्कार की महत्ता भी शास्त्रों में बताई गई है। नाम का मनुष्य के काम पर तथा व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है, अत: शिशु के शुभाशुभ के परिप्रेक्ष्य में नामकरण संस्कार किया जाना चाहिए। ‘शतपथब्राह्मण’ में भी बताया गया है—
तस्मात्पुत्रस्य जातस्य नाम कुर्यात्।
6. निष्क्रमण संस्कार
नवजात शिशु को अच्छे मुहूर्त में अनुष्ठानों के साथ घर से प्रथम बार निकालने को ‘निष्क्रमण संस्कार’ कहते हैं। निष्क्रमण संस्कार प्राय: गांवों में संपन्न किए जाने पर गाय के गोबर से आंगन को लीपकर, चौक पूरकर, विविध अनुष्ठानों के साथ नवजात शिशु को प्रसूतिका-गृह से बाहर लाकर चौक में रखे अनाज का स्पर्श कराया जाता है तथा सूर्य और चंद्रमा  के दर्शन शुभ तिथियों पर कराए जाते हैं।
7. अन्नप्राशन संस्कार
शिशु के मुख में सर्वप्रथम अन्न का स्पर्श कराने को ‘अन्नप्राशन संस्कार’ कहा जाता है। यह प्राय: छह महीने के पश्चात् किया जाता है, क्योंकि तब तक बच्चा बड़ा हो जाता है और उसकी तृप्ति मां के दूध से नहीं हो पाती। ‘चरक संहिता’ में भी छह महीने पश्चात् बच्चों को पथ्य भोजन दिए जाने को श्रेयस्कर बताया गया है। इस अवधि में बच्चों को दांत भी आने लगते हैं तथा पाचनक्रिया भी प्रभावित होती है।
8. चूड़ाकर्म/मुंडन संस्कार
बच्चों के प्रथम वर्ष के अंत में अथवा तृतीय वर्ष के अंत में मुंडन संस्कार कराया जाता है, जिसमें विविध अनुष्ठानों के साथ बच्चों के सिर के बाल उतारे जाते हैं। प्राय: यह संस्कार किसी देवस्थान पर कराने की परंपरा है।
9. कर्णवेध संस्कार
इस संस्कार में कानों को छेदने की प्रथा है। कर्ण-छेदन का संस्कार प्राय: छठे, सातवें, आठवें या ग्यारहवें वर्ष में संपन्न कराया जाता है।  लड़के के दाहिने कान को छेदने तथा लड़कियों के दोनों कानों को छेदने की प्रथा प्रचलित है।
10. विद्यारंभ संस्कार
बच्चे का विद्याध्ययन के लिए प्रारंभ किए जाने वाले इस संस्कार को ‘अक्षरारंभ संस्कार’ भी कहते हैं। अच्छे मुहूर्त के साथ इस संस्कार का शुभारंभ विधि-विधान के साथ कराया जाता है, जिससे बच्चा पढ़-लिखकर यशस्वी बने। यह बच्चे के भविष्य के लिए यह अत्यधिक महत्वपूर्ण संस्कार है।
11. उपनयन संस्कार
इस संस्कार को यज्ञोपवीत अथवा ‘जनेऊ संस्कार’ भी कहते हैं। अथर्ववेद में इसे ‘ब्रह्मचारी’ शब्द से समलंकृत किया गया है, जबकि सामान्य अर्थ में इसे प्राचीन काल के ‘दीक्षादान’ से जाना जाता है। आज भी लोग यज्ञोपवीत संस्कार हर्षोल्लास के साथ संपन्न कराते हैं।
12. वेदारंभ संस्कार
प्राचीन काल में उपनयन संस्कार के साथ ही वेदारंभ अर्थात् वेदों के अध्ययन का संस्कार कराया जाता था, किंतु परवर्ती काल में जब संस्कृत बोलचाल की भाषा नहीं रही तो इसका प्रचलन बहुत कम हो गया। आंशिक रूप से कहीं-कहीं यह संस्कार आज भी संपन्न कराया जाता है।
13. केशांत अथवा गोदान संस्कार
प्राचीन काल में इसके अंतर्गत ब्रह्मचारी (वेदाभ्यासी) के श्मश्रुओं का क्षौर किया जाता था तथा गोदान कराया जाता था।
14. समावर्तन संस्कार
प्राचीन काल में वेदाध्ययन के पश्चात् गुरुकुल से अपने घर प्रत्यावर्तन (लौटने) को ‘समावर्तन संस्कार’ कहा जाता था। इसे ‘दीक्षांत संस्कार’ भी कहा जाता था। आज दीक्षांत समारोह उसी परंपरा का रूप कहा जा सकता है।
15. विवाह संस्कार
इस संस्कार का अत्यधिक महत्व है। आज भी प्रत्येक परिवार में वैवाहिक कार्यक्रम अत्यधिक हर्षोल्लास एवं अपनी-अपनी सामथ्र्य के अनुसार संपन्न कराया जाता है। वैदिक वा्मय में भी विवाह संस्कार की महत्ता सर्वाविदित है।
16. अंत्येष्टि संस्कार
मृत्यु के बाद यह संस्कार अपनी-अपनी परंपरा के अनुसार संपन्न कराया जाता है। ऐहिक जीवन का अंतिम संस्कार परलोकवास की प्रार्थना के साथ किया जाता है। लोक-परलोक दोनों सुधारने का सतत प्रयास मनुष्य करता है और मोक्ष-प्राप्ति उसका अंतिम उद्देश्य होता है। इस परिप्रेक्ष्य में भी संस्कार की अत्यधिक महत्ता है। जीवन की सार्थकता के लिए संस्कारों से स्वयं को, अपनी संतानों को एवं समाज को संवारना आवश्यक है

हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) विश्व के सभी धर्मों में सबसे पुराना धर्म है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय, और दर्शन समेटे हुए है। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है, संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में है। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है। हिन्दी में इस धर्म को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नही है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है