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हिंदी पंचांग के अनुसार, ज्येष्ठ माह में शुक्ल पक्ष की नवमी को महेश नवमी मनाई जाती है। इस साल महेश नवमी 31 मई यानी आज है। इस दिन भगवान शिव जी और माता पार्वती की पूजा-आराधना की जाती है। इन्हें महेश, शंकर, बाबा बर्फानी, केदारनाथ बाबा वैद्यनाथ, भोलेनाथ आदि नामों से जाना जाता है। धार्मिक मान्यता है कि इस दिन भगवान शिव जी की कृपा से माहेश्वरी समाज की वंशोत्पत्ति हुई है। अतः इस दिन माहेश्वरी समाज के लोग बड़े धूमधाम से महेश नवमी का पर्व मनाते हैं।

महेश नवमी पूजा का शुभ मुहूर्त
नवमी 30 मई को शाम में 7 बजकर 57 मिनट को शुरू होकर 31 मई की शाम में 5 बजकर 36 मिनट को समाप्त हो रही है। इस दौरान भगवान शिव जी और माता पार्वती की पूजा-उपासना कर सकते हैं।
महेश नवमी की कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, प्राचीन समय में माहेश्वरी समाज के वंशज वन में आखेट कर रहे थे। उस वन में कुछ ऋषिगण भी यज्ञ कर रहे थे। माहेश्वरी समाज के वंशजों के आखेट से ऋषियों की यज्ञ-तपस्या भंग हो गई थी। तब ऋषियों ने शाप दिया था कि तुम्हारे कुल का सर्वनाश हो जाएगा। कालांतर में माहेश्वरी समाज का पतन हो गया, लेकिन कुल के वंशजों ने शिव जी की कठिन तपस्या की। तदोपरांत, शिव जी की कृपा से उन्हें शाप से मुक्ति मिल गई। भगवान शिव जी ने माहेश्वरी समाज को अपना नाम दिया। कालांतर से महेश नवमी मनाई जाती है।
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सनातनधर्म में भगवान शिव को आदि पंच देवों में से एक माना गया है। यूं तो शिव शंकर इतने भोले हैं, कि भक्तों की छोटी से छोटी बात पर ही प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद दे देते हैं। इसी कारण उनका एक नाम भोलेनाथ भी है।
लेकिन महादेव शिव के प्रतीक शिवलिंग को घर में स्थापित करने पर हमें कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि यदि भगवान शिव भोले हैं तो उनका क्रोध भी बहुत भयंकर होता है ।
शिवलिंग की पूजा यदि सही नियम और विधि-विधान से की जाए तो यह अत्यन्त फलदायी होती है, परन्तु वहीं यदि शिवलिंग की पूजा में कोई त्रुटि हो जाए तो ये गलती किसी मनुष्य के लिए विनाशकारी भी सिद्ध हो सकती है।
कभी भी घर के मंदिर में न करें ये गलतियां...
हिन्दुओं के सभी घरों में देवी-देवताओं के लिए एक अलग स्थान होता है। कुछ घरों में भक्तों द्वारा छोटे-छोटे मंदिर भी बनवाए जाते हैं, लेकिन जानकारों के अनुसार कई बार अज्ञानता के कारण हम मंदिर में कुछ ऐसी गलतियां कर देते हैं, जो अशुभ प्रभाव देती हैं।
घर के मंदिर में इन बातों का रखें ध्यान
1. कभी भी श्री गणेश जी की तीन प्रतिमाएं न रखें।
2. घर के मंदिर में कभी भी दो शंख न रखें।
3. बड़ी मुर्तियां न रखें, शिवलिंग भी आपके अंगुठे के आकार से बड़ा न हो। शिवलिंग अत्यधिक संवेदनशील होता है, इस कारण घर के मंदिर में छोटा सा शिवलिंग रखना ही शुभ माना जाता है।
4. खंडित मूर्ति की पूजा शास्त्रों के अनुसार वर्जित है। अत: खंडित मूर्ति को तुरंत पूजा स्थल से हटाकर, उसे किसी पवित्र बहती हुई नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए।
5. घर के मंदिर में चमड़े से बनी चीजों को नहीं ले जाना चाहिए।
6. घर के मंदिर में मृतकों व पूर्वजों के चित्र भी नहीं लगाने चाहिए, इनके चित्र घर की दक्षिण दिशा क्षेत्र में लगाए जा सकते हैं, लेकिन मंदिर में नहीं।
7. घर के मंदिर के ऊपर कबाड़ या भारी चीजें न रखें।
8. पूजन के दौरान ध्यान रहे कि पूजा के बीच में दीपक न बुझे, ऐसा होने पर पूजा का पूर्ण फल नहीं मिलता।
9. देवी-देवताओं के हार-फूल, पत्तियां कभी भी बिना धोए अर्पित न करें यानि इन्हें चढ़ाने से पहले साफ पानी से अच्छी तरह से धो लें।
10. पूजन में कभी भी खंडित दीपक का उपयोग न करें। इसके अलावा घी के दीपक के लिए रूई की बत्ती और तेल के दीपक के लिए लाल धागे की बत्ती का उपयोग श्रेष्ठ बताया जाता है।
इन बातों का रखेंगे ध्यान तो पाएंगे विशेष कृपा और आशीर्वाद :
1 . ऐसा स्थान जहां पूजा न हो...
शिवलिंग को कभी भी ऐसे स्थान पर स्थापित न करें जहां आप पूजन न करते हों। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यदि आप शिवलिंग की पूजा पूरी विधि-विधान से न कर पा रहे हो या ऐसा करने में असमर्थ हो तो भूल से भी शिवलिंग को घर पर न रखे, क्योकिं यदि कोई व्यक्ति घर पर शिवलिंग स्थापित कर उसकी विधि विधान से पूजा नहीं करता तो यह महादेव शिव का अपमान माना जाता है, इस प्रकार वह व्यक्ति किसी अनर्थ को आमंत्रित करता है।
2 . भूल से भी न चढ़ाएं केतकी का फूल ...
पुराणों में केतकी के फूल को शिव पर न चढ़ाने के पीछे एक कथा छिपी है इस कथा के अनुसार जब एक बार ब्रह्मा जी और विष्णु जी माया से प्रभावित होकर अपने आपको एक -दूसरे से सर्वश्रेष्ठ बताने लगे तब महादेव उनके सामने एक तेज प्रकाश के साथ ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए, ज्योतिर्लिंग के रूप में भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु से कहा की आप दोनों में जो भी मेरे इस रूप के छोर को पहले पा जाएगा वह सर्वशक्तिमान होगा।
भगवान विष्णु शिव के ज्योतिर्लिंग के ऊपरी छोर की ओर गए तथा ब्रह्मा जी नीचे के छोर की ओर गए। काफी दूर चलते चलते भी जब दोनों थक गए तो भगवान विष्णु ने शिव के सामने अपनी पराजय स्वीकार ली है परन्तु ब्रह्मा जी ने अपने पराजय को छुपाने के लिए एक योजना बनाई। उन्होंने केतकी के पुष्पों को साक्षी बनाकर शिव से कहा की उन्होंने शिव का अंतिम छोर पा लिया है। ब्रह्मा जी के इस झूठ के कारण शिव ने क्रोध में आकर उनके एक सर को काट दिया तथा केतकी के पुष्प पर भी पूजा अर्चना में प्रतिबंध लगा दिया।
3. तुलसी पर प्रतिबंध...
शिव पुराण की एक कथा के अनुसार जालंधर नामक एक दैत्य को यह वरदान था की उसे युद्ध में तब तक कोई नहीं हरा सकता जब तक उसकी पत्नी वृंदा पतिव्रता रहेगी, उस दैत्य के अत्याचारों से इस सृष्टि को मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता होने का संकल्प भंग किया व महादेव ने जलंधर का वध। इसके बाद वृंदा तुलसी में परिवर्तित हो चुकी थी व उसने अपने पत्तियों का महादेव की पूजा में प्रयोग होने पर प्रतिबंध लगा दिया। यही कारण की है कि शिवलिंग की पूजा पर कभी तुलसी के पत्तियों का प्रयोग नहीं किया जाता।
4 . हल्दी पर रोक
हल्दी का प्रयोग स्त्रियां अपनी सुंदरता निखारने के लिए करती है व शिवलिंग महादेव शिव का प्रतीक है अत: हल्दी का प्रयोग शिवलिंग की पूजा करते समय नहीं करनी चाहिए।
5 . कुमकुम का उपयोग
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार कुमकुम का प्रयोग एक हिन्दू महिला अपने पति के लम्बी आयु के लिए करती है, जबकि भगवान शिव विध्वंसक की भूमिका निभाते है अत: संहारकर्ता शिव की पूजा में कभी भी कुमकुम का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
6 . शिवलिंग का स्थान बदलते समय
शिवलिंग का स्थान बदलते समय उसके चरणों को सपर्श करें तथा एक बर्तन में गंगाजल का पानी भरकर उसमे शिवलिंग को रखे और यदि शिवलिंग पत्थर का बना हुआ हो तो उसका गंगाजल से अभिषेक करें।
7 . शिवलिंग पर कभी पैकेट का दूध ना चढ़ाएं
शिवलिंग की पूजा करते समय हमेशा ध्यान रहे की उन पर पासच्युराईज्ड दूध ना चढ़ाएं, शिव को चढऩे वाला दूध कच्चा,ठंडा और सादा होना चाहिए।
8 . शिवलिंग किस धातु का हो
शिवलिंग को पूजा घर में स्थापित करने से पूर्व यह ध्यान रखे की शिवलिंग में धातु का बना एक नाग लिपटा हुआ हो। शिवलिंग सोने, चांदी या ताम्बे से निर्मित होना चाहिए।
9 . शिवलिंग को रखे जलधारा के नीचे
यदि आपने शिवलिंग को घर पर रखा है तो ध्यान रहे की शिवलिंग पर सदैव जलधारा बरकरार रहे अन्यथा वह नकरात्मक ऊर्जा को आकर्षित करता है।
10 . कौन सी मूर्ति हो शिवलिंग के समीप
शिवलिंग के समीप सदैव गोरी व गणेश की मूर्ति होनी चाहिए, शिवलिंग कभी भी अकेले नहीं होना चाहिए।
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रामायण के प्रमुख पात्रों में एक रावण भी है, जिसे हम राक्षसराज या अधर्म का कार्य करने वाले के रुप में भी जानते हैं। लेकिन वह एक बहुत ज्ञानवान तो था ही एक बड़ा तपस्वी भी था। उसकी इसी तपस्या के चलते उसका एक ओर नाम पड़ा दशानन, यानि दस हैं जिसके आनन (सिर)...
ऐसे में आज हम आपको एक ऐसी जगह के बारे में बताने जा रहे हैं, जहां रावण ने अपनी तपस्या के चलते भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए अपने कई सिरों की बलि तक दे दी थी। दरअसल मान्यता है कि देवीभूमि उत्तराखंड के नंदप्रयाग से 10 किलोमटीर दूर एक छोटे से गांव में बैरास कुंड स्थित है।
जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां रावण ने भगवान शिव की तपस्या की थी और इस जगह अपने 10 सिरों की बली देने की तैयारी की थी। इस जगह का नाम तब से दशोली पड़ा, जो अब दसौली में परिवर्तित हो गया है।
दरअसल देवभूमि उत्तराखंड में एक जगह है दशोली। कहते हैं ये वही जगह है, जहां रावण ने भगवान शिव की तपस्या की थी। वहीं नंदप्रयाग में आज भी वो कुंड मौजूद है, जहां पौराणिक काल के सबूत मिलते हैं।
अलकनंदा और मन्दाकिनी नदियों के संगम पर बसा नंदप्रयाग पांच धार्मिक प्रयागों में से दूसरा है। पहला प्रयाग है विष्णुप्रयाग, फिर नंदप्रयाग, देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग और आखिर में आता है कर्णप्रयाग। हरे-भरे पहाड़ और नदियों से घिरे नंदप्रयाग में आध्यात्मिक सुकून मिलता है। ये शहर बदरीनाथ धाम के पुराने तीर्थमार्ग पर स्थित है।
यहीं से 10 किलोमीटर दूर स्थित है बैरास कुंड। कहते हैं इस जगह रावण ने अपने अराध्य भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। रावण ने यहीं पर अपने सिरों की बलि दी थी। तब से इस जगह को दशोली कहा जाने लगा।
केदारखंड और रावण संहिता में भी है जिक्र...
यहां बैरास कुंड के पास महादेव का मंदिर भी है। जिसका जिक्र केदारखंड और रावण संहिता में भी मिलता है। पौराणिक काल में इसे दशमौलि कहा जाता था। बैरास कुंड महादेव मंदिर में पूजा-अर्चना करने से हर मनोकामना पूरी होती है। शिवरात्रि और श्रावण मास के अवसर पर यहां दूर-दूर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। स्कंद पुराण के केदारखंड में दसमोलेश्वर के नाम से बैरास कुंड क्षेत्र का उल्लेख किया गया है।
बैरास कुंड में जिस स्थान पर रावण ने शिव की तपस्या की वह कुंड, यज्ञशाला और शिव मंदिर आज भी यहां विद्यमान है। बैरास कुंड के अलावा नंदप्रयाग का संगम स्थल, गोपाल जी मंदिर और चंडिका मंदिर भी प्रसिद्ध है। देवभूमि में स्थित शिव के धामों में इस जगह का विशेष महत्व है। यहां पुरातत्व महत्व की कई चीजें मिली हैं। कुछ समय पहले यहां खेत की खुदाई के दौरान एक कुंड मिला था। इस जगह का संबंध त्रेता युग से जोड़ा जाता है। वहीं पुराणों में भी रावण के हिमालय क्षेत्र में तप करने का उल्लेख मिलता है।

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भगवान शिव के मंदिरों में चमत्कार की घटनाओं के बारे में कई बार आपने भी सुना होगा। सनातन धर्म के प्रमुख देवों में से एक भगवान शंकर को संहार का देव माना जाता है। ऐसे में देश में कई जगह भगवान भोलेनाथ के मंदिर हैं। जिनमें होने वाली कुछ खास घटनाएं ( परिवर्तन ) हमेशा ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। ऐसे में आज हम आपको कुछ खास महादेव के मंदिरों के बारें में बता रहे हैं, जो आने वाले श्रद्धालुओं को भी आश्चर्य में डाल देते हैं।
स्तंभेश्वर महादेव मंदिर ( STAMBHESHWAR MAHADEV TEMPLE )
यह मंदिर अरब सागर के बीच कैम्बे तट पर स्थित है। 150 पहले खोजे गए इस मंदिर का उल्लेख महाशिवपुराण के रुद्रसंहिता में मिलता है। इस मंदिर के शिवलिंग का आकार चार फुट ऊंचा और दो फुट के व्यास वाला है।स्तंभेश्वर महादेव का यह मंदिर सुबह और शाम दिन में दो बार पलभर के लिए गायब हो जाता है। और कुछ देर बाद उसी जगह पर वापस भी आ जाता है। जिसका कारण अरब सागर में उठाने वाले ज्वार-और भांटा को बताया जाता है।
जिस कारण श्रद्धालु मंदिर के शिवलिंग का दर्शन तभी कर सकते हैं जब समुद्र की लहरें पूरी तरह शांत हो। ज्वार के समय शिवलिंग पूरी तरह से जलमग्न हो जाता है। यह प्रक्रिया प्राचीन समय से ही चली आ रही है।
यहां आने वाले सभी श्रद्धालु को एक खास पर्चे बांटे जाते हैं। जिनमे ज्वार-भांटा आने का समय लिखा होता है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि यहां आनेवाले श्रद्धालुओं को परेशानी का सामना ना करना पड़े।
इसके अलावे इस मदिर से एक पौराणिक कथा भी जुडी हुई है। कथा केअनुसार राक्षस तारकासुर ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की। एक दिन शिव जी तपस्या से प्रसन्न होकर प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा। उसके बाद वरदान के रूप में तारकासुर ने शिव से मांगा की उसे सिर्फ शिवजी का पुत्र ही मार सकेगा। और वह भी छह दिन की आयु का।शिव जी ने यह वरदान तारकासुर को दे दिया और अंतर्ध्यान हो गए।
इधर वरदान मिलते ही तारकासुर तीनो लोक में हाहाकार मचने लगा। जिससे डरकर सभी देवता गण शिव जी के पास गए। देवताओं की आग्रह पर शिव जी ने उसी समय अपनी शक्ति से श्वेत पर्वत कुंड से छह मस्तक,चार आंख और बारह हाथ वाले एक पुत्र को उत्पन्न किया।जिसका नाम कार्तिकेय रखा गया।
जिसके पश्चात् कार्तिकेय ने छह दिन की उम्र में तारकासुर का वध किया। लेकिन जब कार्तिकेय को पता चला की तारकासुर भगवान शंकर का भक्त था तो वो काफी व्यथित हो गए। फिर भगवान विष्णु ने कार्तिकेय से कहा की उस स्थान पर एक शिवालय बनवा दें। इससे उनका मन शांत होगा। भगवान कार्तिकेय ने ऐसा ही किया। फिर सभी देवताओं ने मिलकर वहीँ सागर संगम तीर्थ पर विश्वनंद स्तम्भ की स्थापना की जिसे आज स्तंभेश्वर तीर्थ के नाम से जाना जाता है।
निष्कलंक महादेव ( NISHKALANK MAHADEV TEMPLE )
यह मंदिर गुजरात के भावनगर में कोल्याक तट से तीन किलोमीटर अंदर अरब सागर में स्थिर है। रोज अरब सागर की लहरें यहाँ के शिवलिंगो का जलाभिषेक करती है। लोग पैदल चलकर ही इस मंदिर में दर्शन करने जाते हैं। इसके लिए उन्हें ज्वार उतरने का इंतजार करना पड़ता है।
ज्वार के समय सिर्फ मंदिर का खम्भा और पताका ही नजर आता है।जिसे देखकर ये अंदाजा भी नहीं लगा सकता की समुन्द्र में पानी के निचे भगवान महादेव का प्राचीन मंदिर भी है।यह मंदिर महाभारत कालीन बताई जाती है। ऐसा मान जाता है की महाभारत युद्ध में पांडवों ने कौरवों का वध कर युद्ध जीता। पर युद्ध समाप्ति के बाद पांडवों को ज्ञात हुआ की उसने अपने ही सगे सम्बन्धियों के हत्या कर महापाप किया है।
इस महापाप से छुटकारा पाने के लिए पांडव भगवान श्री कृष्ण के पास गए। जहां श्री कृष्ण ने पांडवों को पाप से मुक्ति के लिए एक काला ध्वजा और एक काली गाय सौंपी। और पांडवों को गाय का अनुसरण करने को कहा। और कहा की जब गाय और ध्वजे का रंग काले से सफ़ेद हो जाये तो समझ लेना की तुम सबको पाप से मुक्ति मिल गयी है।
साथ ही श्री कृष्ण ने पांडवों से यह भी कहा की जिस जगह ये चमत्कार होगा वहीं पर तुम भगवान शिव की तपस्या भी करना। पांचों भाई भगवान श्री कृष्ण के कहे अनुसार काली ध्वजा हाथ में लिए काली गाय पीछे-पीछे चलने लगे। इसी क्रम में वो सब कई दिनी तक अलग अलग जगह पर गए। लेकिन गाय और ध्वजा का रंग नहीं बदला।
पर जब वो वर्तमान गुजरात में स्थित कोलियाक तट पर पहुंचे तो गाय और ध्वजा का रंग सफ़ेद हो गया। इससे पांचों पांडव भाई बड़े खुश हुए। और वहीं पर भगवान शिव का ध्यान करते हुए तपस्या करने लगे। भगवान भोलेनाथ उनके तपस्या से खुश हुए और पांचों पांडव को लिंग-रूप में अलग -अलग दर्शन दिए।
वही पांचो शिवलिंग अभी भी वहीं स्थित है। पांचों शिवलिंग के सामने नंदी की प्रतिमा भी है। पांचों शिवलिंग एक वर्गाकार चबूतरे पर बने हुए हैं। तथा ये कोलियाक समुद्र तट से पूर्व की ओर तीन किलोमीटर अंदर अरब सागर में स्थित है। इस चबूतरे पर एक छोटा सा पानी का तालाब भी है जिसे पांडव तालाब कहते हैं।
श्रद्धालु पहले उसमे अपने हाथ पांव धोते हैं और फिर शिवलिंगों की पूजा अर्चना करते हैं। चूंकि यहां पर आकर पांडवों को अपने भाइयों की हत्या की कलंक से मुक्ति मिली थी इसलिए इसे निष्कलंक महादेव कहते हैं। भादव के महीने में अमावश को यहाँ मेला लगता है जिसे भाद्रवी कहा जाता है।
प्रत्येक अमावस के दिन यहां भक्तों की विशेष भीड़ रहती है। लोगों की ऐसी मान्यता है की यदि हम प्रियजनों की चिता की आग शिवलिंग पर लगाकर जल में प्रवाहित कर दें तो उनको मोक्ष मिल जाता है। मंदिर में भगवान शिव को राख,दूध-दही और नारियल चढ़ाये जाते हैं।सालाना प्रमुख मेला भाद्रवी भावनगर के महाराजा के वंशज के द्वारा मंदिर की पताका फहराने से शुरू होता है। और फिर यही पताका मंदिर पर अगले एक साल तक फहराती है।
अचलेश्वर महादेव मंदिर (ACHALESHWAR MAHADEV TEMPLE)
अचलेश्वर नाम से भारत में महादेव के कई मंदिर हैं। लेकिन राजस्थान के धौलपुर में स्थित अचलेश्वर महादेव मंदिर बांकी सभी मंदिरों से अलग है। यह मंदिर राजस्थान और मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित है। जो चम्बल और बीहड़ों के लिए प्रसिद्ध है। भगवान अचलेश्वर महादेव का यह मंदिर इन्ही दुर्गम बीहड़ों के बिच स्थित है।
इस मंदिर का शिवलिंग जो दिन में तीन बार रंग बदलता है। सुबह में शिवलिंग का रंग लाल होता है,दोपहर में केसरिया और जैसे जैसे शाम होती है शिवलिंग का रंग सांवला हो जाता है।इन रंगों के बदलाव के रहस्य को कोई नहीं जनता। अचलेश्वर महादेव का यह मंदिर भी काफी प्राचीन है। चुकी मंदिर का यह इलाका डाकुओ के प्रसिद्ध था जिस वजह से यहां कम श्रद्धालु आते थे।
काम श्रद्धालु आते थे। साथ यहां तक पहुंचाने का रास्ता बहुत ही पथरीला और उबड़-खाबड़ था। पर जैसे जैसे भगवान के बारे में लोग जानने लगे यहां पर भक्तों की भीड़ जुटने लगी। इस शिवलिंग की एक और अनोखी बात यह है की इस शिवलिंग के छोर का आज तक पता नहीं चला है।
कहते हैं बहुत समय पहले एक बार भक्तों ने शिवलिंग की गहराई को जानने के लिए इसकी खुदाई की पर काफी गहराई तक खोदने के बाद भी इसके छोर का पता नहीं चला। अंत में भक्तों ने इसे भगवान का चमत्कार मानते हुए खुदाई बंद कर दी। भक्तों का मानना है की भगवान अचलेश्वर महादेव भक्तों की सभी मनोकामना पूरा करते हैं।
लक्ष्मेश्वर महादेव मंदिर (LAKSHMESHWAR MAHADEV TEMPLE)
ऐसा माना जाता है की इस मंदिर की स्थापना भगवान राम ने खड़ और दूषण के वध के पश्चात् अपने भाई लक्ष्मण के कहने पर की थी। लक्ष्मेश्वर महादेव मंदिर के गर्भ गृह में एक शिवलिंग है जिसकी स्थापना स्वंय लक्ष्मण ने की थी। इस शिवलिंग में एक लाख छिद्र हैं। इसलिए इसे लक्ष-लिंग भी कहा जाता है। इस लाख छिद्रों में से एक छिद्र ऐसा है जो की पाताल गामी है। क्यूंकि उसमे जितना भी जल डालो वह सब उसमे समां जाता है। लेकिन एक छिद्र अक्षय कुंड है क्यूंकि उसमे जल हमेशा ही भरा रहता है। लक्ष-लिंग पर चढ़ाया गया जल मंदिर के पीछे कुंड में भी चले जाने की मान्यता है। क्यूंकि कुंड कभी सूखता नहीं। लक्ष-लिंग जमीन से करीब 30 फिट ऊपर है और इसे स्वयंभू-लिंग भी माना जाता है।
बिजली महादेव मंदिर (BIJALI MAHADEV TEMPLE)
भगवान शिव के अनेकों अद्भुत मंदिरों में से एक है हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में स्थित बजली महादेव मंदिर। कुल्लू का पूरा इतिहास बिजली से जुड़ा हुआ है। कुल्लू शहर में व्यास और पार्वती नदी के संगम के पास एक ऊंचे पर्वत पर बिजली महादेव का प्राचीन मंदिर है।
पूरी कुल्लू घाटी में ऐसी मान्यता है कि ये घाटी ही एक विशालकाय सांप का रूप है। इस सांप का वध भगवान शिव ने किया था। जिस स्थान पर मंदिर है वहां शिवलिंग पर हर बारह वर्ष बाद आकाश से भयानक बिजली गिरती है। बिजली गिरने से मंदिर का शिवलिंग खंडित हो जाता है। यहाँ के पुजारी खंडित शिवलिंग के टुकड़े को एकत्रित कर मख्खन के साथ इसे जोड़ देते हैं। कुछ समय बाद ही शिवलिंग ठोस रूप में परवर्तित हो जाता है।
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सनातन धर्म में त्रिदेवों में से एक भगवान शिव भी हैं। वहीं आदि पंचदेवों में भी एक भगवान शिव ही हैं। महादेव को सनातन में संहार का देवता माना जाता है। ऐसे में भगवान भोलेनाथ के भारत में अनेक धर्मस्थल बने हैं जिनको लेकर अलग-अलग इतिहास और मान्यताएं जुड़ी हुई है, लेकिन भारत में कुछ मंदिर ऐसे भी हैं जिनके बारे में लोग बहुत कम ही जानते हैं।
देशभर में जहां भगवान शिव के अनेक मंदिर बने हैं, वहीं आज भी कुछ ऐसे रहस्यमयी मंदिर मौजूद है, जिनके तथ्य लोगों को हैरान कर सकते हैं। आज हम बात कर रहे हैं एक ऐसे मंदिर की जिसके बारे में तो लोगों ने बहुत कम सुना होगा, लेकिन इसकी धार्मिक मान्यता काफी ज्यादा है।
दरअसल ये बेहद ही रहस्यमयी शिव मंदिर (Mysterious Temple) झारखंड (Jharkhand) के रामगढ (Ramgarh) में स्थित है। जिसे टूटी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर में 24 घंटे शिवलिंग पर जलाभिषेक होता रहता है और इस जलाभिषेक का स्त्रोत मां गंगा को माना गया है।। वैसे तो आमतौर पर लोग 1 से 2 या 3 बार जलाभिषेक करते हैं, लेकिन 24 घंटों तक जलाभिषेक किसी को भी हैरान कर सकता है। जी हां, इस रहस्यमयी मंदिर की एक बेहद रोचक इतिहास है जिससे बहुत कम लोग जानते हैं।
प्राचीन (Historical) कहानी के अनुसार सन् 1925 में अंग्रेज (Foreigners) झारखंड के रामगढ इलाके में रेलवे लाइन बिछा रहे थे। जब वे पानी की खुदाई कर रहे थे, तब इसी दौरान उन्हें जमीन के अंदर कुछ अजीब सा दिखाई दिया जो गुंबदनुमा आकार का था।
अंग्रेजों ने जमीन के अंदर तक खुदाई की जहां उन्हें एक प्राचीन मंदिर मिला। इस मंदिर में भगवान शिव का शिवलिंग मौजूद था जिसके ठीक उपर से जल निकल रहा था जो शिवलिंग पर आकर गिर रहा था। जल का स्त्रोत गंगा मां (Goddess Ganga) कि प्रतिमा (Statue) से निकल रहा था जो नाभी से आपरूपि गंगा मां के हाथों से निकल रहा था और शिवलिंग पर गिर रहा था।
स्वंय गंगा करती है भगवान शिव का जलाभिषेक
इस दृश्य को देखने के बाद अंग्रेज काफी हैरान रह गए थे। बता दें कि, रामगढ के इस मंदिर में आज भी रहस्य सुलझ नहीं पाया है कि आखिर कहां से ये पानी निकलता है और क्या इसका स्त्रोत हैं, माना जाता है कि यह भगवान शिव का चमत्कार है जिसे स्वंय गंगा मां भी पूजती हैं।


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इस प्राचीन मंदिर में हुई थी शिव ...

भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह महाशिवरात्रि के पर्व पर होने की मान्यता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये विवाह आखिर कहां हुआ था, यदि नहीं तो आज हम आपको उस स्थान के बारें में बता रहे हैं। जिसके संबंध में मान्यता है कि भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह यहीं हुआ था, वहीं यहां एक खास बात ये भी है कि यहां विवाह के समय से ही फेरे लिए गए अग्नि कुंड की लौ आज तक जल रही है।
इस विवाह के संबंध में मान्यता है कि माता पार्वती भगवान शिव से ही विवाह करना चाहती थीं। ऐसे में सभी देवताओं का भी यही मत था कि पर्वत राजकन्या पार्वती का विवाह शिव से हो।
लेकिन भगवान शिव की ओर से ऐसी कोई संभावना नहीं दिखाए जाने पर माता पार्वती ने ठान लिया कि वो विवाह करेंगी तो सिर्फ भोलेनाथ से। जिसके बाद शिव को अपना वर बनाने के लिए माता पार्वती ने बहुत कठोर तपस्या शुरू कर दी। ये देख भोले बाबा ने अपनी आंख खोली और पार्वती से आवहन किया कि वो किसी समृद्ध राजकुमार से शादी करें, शिव ने इस बात पर भी जोर दिया कि एक तपस्वी के साथ रहना आसान नहीं है।
लेकिन माता पार्वती तो अडिग थी, उन्होंने साफ कर दिया था कि वो विवाह सिर्फ भगवान शिव से ही करेंगी। अब पार्वती की ये जिद देख भोलेनाथ पिघल गए और उनसे विवाह करने के लिए राजी हो गए। ऐसे में हम आपको आज उस जगह के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसके संबंध में मान्यता है कि भगवान शिव व माता पार्वति का यहीं विवाह हुआ था।
दरअलस उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के त्रियुगीनारायण गांव में एक अत्यंत प्राचीन हिन्दू मंदिर है। जिसे त्रियुगीनारायण मंदिर को त्रिवुगीनारायण मंदिर से भी जाना जाता है। मान्यता है कि भगवान विष्णु इस मंदिर में माता लक्ष्मी व भूदेवी के साथ विराजमान हैं।
त्रियुगीनारायण मंदिर : आज भी जलती है फेरे वाले अग्निकुंड में दिव्य लौ
माता पार्वती ने कठोर तपस्या कर भगवान शिव को विवाह के लिए प्रसन्न किया और भगवान शिव ने माता पार्वती के प्रस्ताव को स्वीकार किया। माना जाता है शिव-पार्वती का विवाह इसी त्रियुगीनारायण मंदिर में हुआ था।
यहां भगवान विष्णु ने माता पार्वती के भ्राता होने का कर्तव्य निभाते हुए उनका विवाह संपन्न करवाया। ब्रह्मा जी इस विवाह में पुरोहित थे। इस मंदिर के सामने अग्निकुंड के ही फेरे लेकर शिव-पार्वती का विवाह हुआ था। खास बात ये है कि उस अग्निकुंड में आज भी लौ जलती रहती है। यह लौ शिव-पार्वती विवाह की प्रतीक मानी जाती है, इसलिए इस मंदिर को अखंड धूनी मंदिर भी कहा जाता है। मंदिर के पास ही तीन कुण्ड भी है।
ब्रह्माकुण्ड:- इस कुण्ड में ब्रह्मा जी ने भगवान शिव के विवाह से पूर्व स्नान किया था व स्नान करने के पश्चात विवाह में पुरोहित के रूप में प्रस्तुत हुए।
विष्णुकुण्ड:- भगवान शिव के विवाह से पूर्व विष्णु जी ने इस कुण्ड में स्नान किया था।
रुद्रकुण्ड:- विवाह में उपस्थित होने वाले सभी देवी-देवताओं ने इस कुण्ड में स्नान किया था।
मान्यता के अनुसार इन सभी कुण्डों में जल का स्रोत सरस्वती कुण्ड है। सरस्वती कुण्ड का निर्माण विष्णु जी की नासिका से हुआ है। माना जाता है कि विवाह के समय भगवान शिव को एक गाय भी भेंट की गई थी, उस गाय को मंदिर में ही एक स्तम्भ पर बांधा गया था।
त्रियुगीनारायण मंदिर की खास बातें
माना जाता है कि त्रियुगीनारायण मंदिर त्रेतायुग से स्थापित है। इस मंदिर में आज भी अग्निकुंड में अग्नि जलती है, यहां प्रसाद के रूप में लकड़ियां डाली जाती है इस अग्निकुंड में श्रद्धालु धूनी भी लेकर जाते हैं ताकि उनके वैवाहिक जीवन मे सदा सुख-शांति बनी रहे। माना जाता है कि विवाह से पहले सभी देवी-देवताओं ने जिस कुण्ड में स्नान किया था, उन सभी कुण्डों में स्नान करने से "संतानहीनता" से मुक्ति मिलती है व मनुष्य को संतान की प्राप्ति होती है।
पौराणिक कथा के अनुसार राजा बलि ने इन्द्रासन पाने की इच्छा से सौ यज्ञ करने का निश्चय किया और निन्यानबे यज्ञ होने के पश्चात भगवान विष्णु वामन अवतार धारण करके राजा बलि का अंतिम यज्ञ भंग कर दिया, तबसे इस स्थान पर भगवान विष्णु की वामन देवता अवतार में पूजा-अर्चना की जाती है।



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सोमवार को भगवान शिव की पूजा का महत्व (Monday God Shiva Puja Importance): हिंदू धर्म में अलग-अलग देवी देवताओं की पूजा के लिए अलग-अलग वार (दिन) हैं. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, सोमवार का दिन भगवान शिव को समर्पित माना जाता है. यही वजह है कि सोमवार के दिन भगवान शिव की पूजा अर्चना की जाती है. प्राचीन समय में भी लोग भगवान शिव की पूजा अर्चना इस दिन करते थे.आइए जानते हैं कि सोमवार के दिन भगवान शिव की पूजा का क्या महत्व है..

सोमश्‍वर व्रत:
पौराणिक मान्यताओं में सोमवार को भगवान शिव के व्रत को सोमश्‍वर व्रत कहा गया है. सोमश्‍वर से अर्थ है शिव (चंद्रदेव के आराध्य) और इसका एक अन्य अर्थ है चंद्रमा. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब श्राप के कारण चंद्र देव कुरूप हो गए थे तो वो सोमवार के दिन ही भगवान शिव की पूजा अर्चना किया करते थे ताकि वो अपना रूप दोबारा प्राप्त कर सकें. यही वजह है कि सोमवार को भक्त भगवान शिव की आराधना करते हैं. इस दिन व्रत और पूजा-पाठ करने से चंद्र देव और भगवान शिव दोनों ही प्रसन्न होते हैं.

पूरी होती हैं मनोकामनाएं:

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव सोमवार का व्रत करने वाले जातक की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं. सोमवार के दिन शिवलिंग पर दूध, बेलपत्र और धतूरा अर्पित करने का विशेष महत्व होता है. ऐसा करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं.


एस्ट्रो धर्म :

13 Lord Shiv aartis and chants to listen to and celebrate Maha ...

भगवान शिव अर्थात पार्वती के पति शंकर जिन्हें महादेव, भोलेनाथ, आदिनाथ आदि कहा जाता है,वहीं इनका एक नाम त्रिपुरारी भी है। दरअसल हिन्दू धर्म में भगवान शिव को अनादि, अनंत, अजन्मा माना गया है यानि उनका कोई न आरंभ है न अंत है। न उनका जन्म हुआ है, न वह मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इस तरह भगवान शिव अवतार न होकर साक्षात ईश्वर हैं। भगवान शिव को कई नामों से पुकारा जाता है। कोई उन्हें भोलेनाथ तो कोई देवाधि देव महादेव के नाम से पुकारता है। वे महाकाल भी कहे जाते हैं और कालों के काल भी...
माना जाता है कि सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें 'आदिदेव' भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम 'आदिश' भी है। वहीं शिव की साकार यानि मूर्तिरुप और निराकार यानि अमूर्त रुप में आराधना की जाती है।
शास्त्रों में भगवान शिव का चरित्र कल्याणकारी माना गया है। उनके दिव्य चरित्र और गुणों के कारण भगवान शिव अनेक रूप में पूजित हैं। आपको बता दें कि देवाधी देव महादेव मनुष्य के शरीर में प्राण के प्रतीक माने जाते हैं| आपको पता ही है कि जिस व्यक्ति के अन्दर प्राण नहीं होते हैं तो उसे शव का नाम दिया गया है| भगवान् भोलेनाथ का पंच देवों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है|
भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं। वहीं भगवान शिव को मृत्युलोक का देवता माना जाता है| ब्रम्हा जी सृष्टि के रचयिता, विष्णु को पालनहार और भगवान शंकर संहारक है| यह केवल लोगों का संहार करते हैं| भगवान भोलेनाथ संहार के अधिपति होने के बावजूद भी सृजन का प्रतीक हैं। वे सृजन का संदेश देते हैं। हर संहार के बाद सृजन शुरू होता है। इसके आलावा पंच तत्वों में शिव को वायु का अधिपति भी माना गया है।
वायु जब तक शरीर में चलती है, तब तक शरीर में प्राण बने रहते हैं। लेकिन जब वायु क्रोधित होती है तो प्रलयकारी बन जाती है। जब तक वायु है, तभी तक शरीर में प्राण होते हैं। शिव अगर वायु के प्रवाह को रोक दें तो फिर वे किसी के भी प्राण ले सकते हैं, वायु के बिना किसी भी शरीर में प्राणों का संचार संभव नहीं है।
शिव के 7 शिष्य हैं जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। शिव के शिष्य हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।
कार्तिक मास की पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार, इसी दिन भगवान शिव ने तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली के त्रिपुरों का नाश किया था। त्रिपुरों का नाश करने के कारण ही भगवान शिव का एक नाम त्रिपुरारी भी प्रसिद्ध है।
ऐसे किया त्रिपुरों का नाश
भगवान शिव के त्रिपुरारी कहलाने के पीछे एक बहुत ही रोचक कथा है। शिव पुराण के अनुसार जब भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने दैत्यराज तारकासुर का वध किया तो उसके तीन पुत्र तारकक्ष, विमलाकक्ष, तथा विद्युन्माली अपने पिता की मृत्यु पर बहुत दुखी हुए। उन्होंने देवताओ और भगवान शिव से अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने की ठानी तथा कठोर तपस्या के लिए ऊंचे पर्वतो पर चले गए। अपनी घोर तपस्या के बल पर उन्होंने ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे अमरता का वरदान माँगा। परन्तु ब्रह्मा जी ने कहा की मैं तुम्हे यह वरदान देने में असमर्थ हूँ अतः मुझ से कोई अन्य वरदान मांग लो।
तब तारकासुर के तीनों पुत्रों ने ब्रह्मा जी से कहा की आप हमारे लिए तीनो पुरियों (नगर) का निर्माण करवाइये तथा इन नगरो के अंदर बैठे-बैठे हम पृथ्वी का भ्रमण आकाश मार्ग से करते रहे है। जब एक हजार साल बाद यह पूरिया एक जगह आये तो मिलकर सब एक पूर हो जाए।
तब जो कोई देवता इस पूर को केवल एक ही बाण में नष्ट कर दे वही हमारी मृत्यु का कारण बने। ब्रह्माजी ने तीनो को यह वरदान दे दिया व एक मयदानव को प्रकट किया। ब्रह्माजी ने मयदानव से तीन पूरी का निर्माण करवाया जिनमे पहला सोने का दूसरा चांदी का व तीसरा लोहे का था। जिसमे सोने का नगर तारकक्ष, चांदी का नगर विमलाकक्ष व लोहे का महल विद्युन्माली को मिला।
तपस्या के प्रभाव व ब्रह्मा के वरदान से तीनो असुरो में असीमित शक्तियां आ चुकी थी जिससे तीनो ने लोगो पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने पराक्रम के बल पर तीनो लोको में अधिकार कर लिया। इंद्र समेत सभी देवता अपने जान बचाते हुए भगवान शिव की शरण में गए तथा उन्हें तीनो असुरो के अत्याचारों के बारे में बताया।
देवताओं आदि के निवेदन पर भगवान शिव त्रिपुरो को नष्ट करने के लिए तैयार हो गए। स्वयं भगवान विष्णु, शिव के धनुष के लिए बाण बने व उस बाण की नोक अग्नि देव बने। हिमालय भगवान शिव के लिए धनुष में परिवर्तित हुए व धनुष की प्रत्यंचा शेष नाग बने। भगवान विश्वकर्मा ने शिव के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण करवाया जिसके पहिये सूर्य व चन्द्रमा बने. इंद्र, वरुण, यम कुबेर आदि देव उस रथ के घोड़े बने।
उस दिव्य रथ में बैठ व दिव्य अस्त्रों से सुशोभित भगवान शिव युद्ध स्थल में गए जहां तीनो दैत्य पुत्र अपने त्रिपुरो में बैठ हाहाकार मचा रहे थे। जैसे ही त्रिपुर एक सीध में आये भगवान शिव ने अपने अचूक बाण से उन पर निशाना साध दिया। देखते ही देखते उन त्रिपुरो के साथ वे दैत्य भी जलकर भस्म हो गए और सभी देवता आकाश मार्ग से भगवान शिव पर फूलो की वर्षा कर उनकी जय-जयकार करने लगे। उन तीनो त्रिपुरो के अंत के कारण ही भगवान शिव त्रिपुरारी नाम से जाने जाते है।
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दुनिया में शिवलिंग पूजा की शुरूआत होने का गवाह बना ऐतिहासिक और प्राचीनतम जागेश्वर महादेव का मंदिर उत्तराखंड के अल्मोडा जिले के मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर देवदार के वृक्षों के घने जंगलों के बीच पहाड़ी पर स्थित है।
इस मंदिर परिसर में पार्वती, हनुमान, मृत्युंजय महादेव, भैरव, केदारनाथ, दुर्गा सहित कुल 124 मंदिर स्थित हैं जिनमें आज भी विधिवत् पूजा होती है।
भारतीय पुरातत्व विभाग ने इस मंदिर को देश के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक बताया है और बाकायदा इसकी घोषणा करता एक शिलापट्ट भी लगाया गया है। मंदिर के मुख्य पुजारी के अनुसार एक सचाई यह भी है कि इसी मंदिर से ही भगवान शिव की-लिंग पूजा के रूप में शुरूआत हुई थी।
शिव के पदचिह्न
वहीं देवभूमि, उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के मंदिर के पास शिव के पदचिह्न हैं। मान्यता है कि पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।
यहां की पूजा के बाद ही पूरी दुनिया में शिवलिंग की पूजा की जाने लगी और कई स्वयं निर्मित शिवलिंगों को बाद में ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजा जाने लगा।
मुख्य पुजारी के अनुसार यहां स्थापित शिवलिंग स्वयं निर्मित यानी अपने आप उत्पन्न हुआ है और इसकी कब से पूजा की जा रही है इसकी ठीक ठीक से जानकारी नहीं है, लेकिन यहां भव्य मंदिरों का निर्माण आठवीं शताब्दी में किया गया है. घने जंगलों के बीच विशाल परिसर में पुष्टि देवी (पार्वती), नवदुर्गा, कालिका, नीलकंठेश्वर, सूर्य, नवग्रह सहित 124 मंदिर बने हैं।
वैसे हमारे शास्त्रों में भारतवर्ष में स्थापित सभी बारह ज्योतिर्लिंग के बारे में कुछ इस तरह से कहा गया है-
सोराष्ट्र सोमनाथ च श्री शेले मलिकार्जुनम ।
उज्जयिन्या महाकालमोकारे परमेश्वर ।
केदार हिमवत्प्रष्ठे डाकिन्या भीमशंकरम ।।
वाराणस्या च विश्वेश त्रम्ब्कम गोमती तटे।।
वेधनात चिताभुमो नागेश दारुकावने ।
सेतुबंधेज रामेश घुश्मेश तु शिवालये ।।
द्वादशे तानि नामानि: प्रातरूत्थया य पवेत ।
सर्वपापै विनिमुर्कत : सर्वसिधिफल लभेत ।।
इसे दोहे में एक शब्द है "नागेश दारुकावने" इस शब्द की एक व्याख्या कुछ इस प्रकार हैं, दारुका के वन में स्थापित ज्योतिर्लिंग, दारुका देवदार के वृक्षों को कहा जाता हैं, तो देवदार के वृक्ष तो केवल जागेश्वर में ही है ।
शिवपुराण के मानस खण्ड में है जिक्र: आसपास के क्षेत्रों के नाम भी नाग के ही नामों पर...
मुख्य पुजारी के अनुसार दुनिया में भगवान शिव की-लिंग के रूप में पूजा की शुरूआत इसी मंदिर से हुई थी और इसका जिक्र शिवपुराण के मानस खण्ड में हुआ है ।कई जानकारों के अनुसार जागेश्वर को ही नागेश्वर माना जाता है क्योंकि इस मंदिर के आसपास के अधिकांश इलाकों का नाम नाग पर ही आधारित है।
बेरीनाग, धौलेनाग, लियानाग, गरूड स्थानों से भी यह साबित होता है कि यह इलाका नाग बहुल था और इसीलिए इसका नाम नागेश्वर भी पडा लेकिन कहा जाता है कि इसके जाग्रत अवस्था में होने के कारण बाद में इसे जागेश्वर भी कहा जाने लगा। दरअसल आदिशंकराचार्य के यहां आने तक की पूरी कथा इसके जाग्रत होने की साक्षी है।
मानस खण्ड में नागेशं दारूकावने का जिक्र आया है। दारूकावने देवदार के वन के लिए कहा गया है ।इससे इसे नागेश्वर का नाम भी दिया गया, चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भारत यात्रा के दौरान यहां की यात्रा की थी और उसने इस मंदिर की प्राचीनता के बारे में जिक्र भी किया है ।
यह मंदिर साक्ष्यों के आधार पर करीब ढाई हजार साल पुराना है,और इस मंदिर की दीवारों की प्राचीनता इसकी गवाह है।
यह मंदिर भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगो में एक है, जगद्गुरु शंकराचार्य ने अपने भ्रमण के दौरान इसकी मान्यता को पुनर्स्थापित किया था। इस मंदिर समुह के मध्य में मुख्य मंदिर में स्थापित शिवलिंग को श्री नागेश ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजा जाता है । इसी नाम का एक और ज्योतिर्लिंग द्वारिका के पास भी स्थापित है, जिसे श्री नागेश ज्योतिर्लिंग के रूप में भी मान्यता प्राप्त है।
जागेश्वर के इन मंदिरों का निर्माण पत्थर की बड़ी-बड़ी शिलाओं से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं । मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकडी का भी बखूबी प्रयोग किया गया है । इन मंदिर समूह कुछ मंदिर के शिखर काफी ऊंचे तो कुछ काफी छोटे आकार के भी हैं। 
जागेश्वर महादेव की यह है कथा : आदि शंकराचार्य ने किया कीलित...
पुराणों के अनुसार रावण, मार्कण्डेय, पांडव व लव-कुश ने भी यहां शिव पूजन किया था, इतना ही नहीं भगवान शिव तथा सप्तऋषियों ने भी यहां तपस्या की थी। कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था।
आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजय में स्थापित शिवलिंग को कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएंपूरी नहीं होती केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी हो सकती हैं।

ऐसे समझें उत्पत्ति की कथा...
मान्यता है कि शिव ने दक्ष प्रजापति का यज्ञ विध्वंस कर सबका नाश कर दिया और चिता की भस्म से शरीर को आच्छादित कर झांकर सैम ( जागेश्वर से करीब 5 कि०मी० गरुड़ाबांज नामक स्थान पर) में तपस्या की। झांकर सैम को तब भी देवदार वन से आच्छादित बताया गया है। झांकर सैम जागेश्वर पर्वत में है। कुमाऊं के इस वन में वशिष्ठ मुनि अपनी पत्नियों के साथ रहते थे।
एक दिन स्त्रियों ने जंगल में कुशा और समिधा एकत्र करते हुये शिव को राख मले नग्नावस्था में तपस्या करते देखा, गले में सांप की माला थी, आंखें बंद, मौन धारण किये हुये, चित्त उनका काली के शोक से संतप्त था। स्त्रियां उनके सौन्दर्य को देखकर उनके चारों ओर एकत्र हो गईं, सप्तॠषियों की सातों स्त्रियां जब रात में ना लौटी तो वे प्रातःकाल उनको ढूंढने को गये, देखा तो शिव समाधि लिये बैठे है और स्त्रियां उनके चारों ओर बेहोश पड़ी हैं।
ॠषियों ने यह विचार कर लिया कि शिव ने उनकी स्त्रियों की बेइज्जती की है और शिव को श्राप दिया कि जिस इन्द्रिय यानी वस्तु से तुमने यह अनौचित्य किया है वह (लिंग) भूमि में गिर जाएगा, तब शिव ने कहा कि तुमने मुझे अकारण ही श्राप दिया है, लेकिन तुमने मुझे सशंकित अवस्था में पाया है, इसलिये तुम्हारे श्राप का मैं विरोध नहीं करुंगा, मेरा-लिंग पृथ्वी में गिरेगा। तुम सातों भी सप्तर्षि तारों के रुप में आकाश में लटके हुए चमकोगे।
ऐसे हुई शिवलिंग की उत्पत्ति...
अतः शिव ने श्राप के अनुसार अपने-लिंग को पृथ्वी में गिराया, और सारी पृथ्वी-लिंग से ढक गई, गंधर्व व देवताओं ने महादेव की तपस्या की और उन्होंने-लिंग का नाम यागीश या यागीश्वर कहा और वे ऋषि सप्तर्षि कहलाये।
श्राप के कारण शिव का-लिंग जमीन पर गिर गया और सारी पृथ्वी-लिंग के भार से दबने लगी, तब ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, सूर्य, चंद्र और अन्य देव जो जागेश्वर में शिव की स्तुति कर रहे थे, अपना-अपना अंश और शक्तियां वहां छोड़कर चले गए, देवताओं ने-लिंग का आदि अंत जानने का प्रयास किया, ब्रह्मा, विष्णु और कपिल मुनि भी इसका उत्तर न दे सके, विष्णु पाताल तक भी गए लेकिन उसका अंत न पा सके, तब विष्णु शिव के पास गये औए उनसे अनुनय विनय के बाद यह निश्चय हुआ कि विष्णु-लिंग को सुदर्शन चक्र से काटें और उसे तमाम खंडों में बांट दें। अंततः जागेश्वर में-लिंग को काटा गया और उसे नौ खंडों में बांटा गया तथा शिव की पूजा-लिंग रुप में शुरु की गई।
यह नौ खंड इस प्रकार हैं...
1- हिमाद्रि खंड
2- मानस खंड
3- केदार खंड
4- पाताल खंड- जहां नाग लोग-लिंग की पूजा करते हैं।
5- कैलाश खंड
6- काशी खंड- जहां विश्वनाथ जी हैं, बनारस
7- रेवा खंड- जहां रेवा नदी है. जहां पर नारदेश्वर के रुप में-लिंग पूजा होती है, शिवलिंग का नाम रामेश्वरम है।
8- ब्रह्मोत्तर खंड- जहां गोकर्णेश्वर महादेव हैं, कनारा जिला मुंबई।
9- नगर खंड- जिसमें उज्जैन नगरी है।
जानकारों के अनुसार इससे भी यह सिद्ध होता है कि महादेव की-लिंग रुप में पूजा जागेश्वर से ही प्रारम्भ हुई।
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भगवान शिव को सनातन धर्म के प्रमुख देवों में से एक माना गया है। आदि पंच देवों में जहां महादेव को खास स्थान प्राप्त है वहीं देवाधिदेव को संहार का देवता माना जाता है। सोमवार का दिन भगवान शिव का प्रमुख दिन माना गया है, ऐसे में आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं, जो कई मायनों में खास है। यहां तक की माना जाता है कि इस शिवलिंग की रखवाली खुद नाग करते हैं।
हम बात कर रहे हैं मध्यप्रदेश के ग्वालियर में स्थित भगवान शिव के उस धाम की जहां स्वयं नागों ने शिवलिंग की रक्षा के लिए मुगल सैनिकों पर तक हमला कर दिया था।
जानकारों के अनुसार ग्वालियर शहर में कोटेश्वर महाराज का मंदिर पूरे अंचल की आस्था का केन्द्र है। मंदिर में जो शिवलिंग है वो दिव्य है और सदियों पुराना है। कोटेश्वर महादेव के शिवलिंग को तोडऩे की कोशिश तत्कालीन मुगल बादशाह औरंगजेब ने भी की थी, लेकिन वो इसका कुछ नहीं बिगाड़ सके। बताया जाता है कि औरंगजेब के इस हमले के दौरान नागों ने शिवलिंग की रक्षा की थी।
ऐसे मिला कोटेश्वर महादेव नाम
कोटेश्वर महादेव का मंदिर पहले ग्वालियर दुर्ग पर स्थित था। 17 वीं शताब्दी में मुगल शासक औरंगजेब जब हिन्दू देवी देवताओं के मंदिर को तहस-नहस कर रहा था, तो ग्वालियर दुर्ग स्थित यह प्राचीन मंदिर भी उनके निशाने पर था। औरंगजेब की इस बर्बरता का शिकार कोटेश्वर महादेव मंदिर भी हुआ।
हमले के बावजूद शिवलिंग को नुकसान नहीं पहुंचा पाए औरंगजेब के सैनिक...
कहा जाता है कि जब औरंगजेब के सैनिक मंदिर को लूट रहे थे और तभी नागों ने इस दिव्य शिवलिंग को अपने घेरे में ले लिया, जिससे सैनिक शिवलिंग को नुकसान नहीं पहुंचा पाए।
लोगों के अनुसार मंदिर उजाड़ने का आदेश औरंगजेब ने अपने सैनिकों को दिया था। सैनिकों ने बाबा के मंदिर से शिवलिंग को उखाड़ने का प्रयास किया जिसके बाद वहां पर सैकड़ों की संख्या में नाग पहुंच गए और उन्होंने सैनिकों को डंस लिया था।
इसके बाद ये शिवलिंग दुर्ग से हटकर किले की कोटे में आ गिरा। किले के कोटे में शिवलिंग मिलने के कारण शिवलिंग को कोटेश्वर महादेव कहा गया।
जीवाजी राव सिंधिया ने करवाया था भव्य मंदिर का निर्माण
औरंगजेब के हमले के बाद कोटेश्वर मंदिर में रखा शिवलिंग सदियों तक किले की तलहटी में दबा रहा। मंदिर से जुड़े लोग बताते हैं कि संत देव महाराज को स्वप्न में नागों के द्वारा रक्षित मूर्ति के दर्शन हुए, उनके कानों में उसे बाहर निकलवा कर पुनस्र्थापित किए जाने का आदेश गूंजा। महंत देव महाराज के अनुरोध पर जीवाजी राव सिंधिया ने किला तलहटी में पड़े मलवे को हटा कर प्रतिमा को निकाला और संवत 1937-38 में मंदिर बनवा कर उसमें मूर्ति की पुन:प्रतिष्ठा करवाई।
ये भी है खास...
वहीं पूर्व में जब किले पर स्थित शिव मंदिर में अभिषेक होता था, तो यह जल मंदिर से नीचे बने एक छोटे से कुंड में एकत्रित होता था। इस कुंड से पाइप लाइन से यह पानी बहकर नीचे आता था। जो कि एक बड़े कुंड में एकत्रित होता था। इस कुंड में नीचे तक जाने की किसी को इजाजत नहीं थी।
जिसे भी अभिषेक किए गए जल का प्रसाद लेना होता था वह सीढ़ियों पर खड़े होकर जल ग्रहण कर लेता था। यहां से यह जल किले की पहाड़ी में वाटर हार्वेस्टिंग के जरिए पहुंचता था। वहीं वर्तमान में कोटेश्वर महादेव मंदिर के ठीक पीछे पहले बंजारों का शिव मंदिर और दो बावड़ी थीं। औरगंजेब ने इस मंदिर से शिवलिंग को निकालकर इसी बावड़ी में फेंक दिया था, यह बावड़ी लगभग 12 मंजिला गहरी है।
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