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ऐस्ट्रो  धर्म : 



इस्लाम में रमजान का शुमार सबसे पाक महीने में होता है। मुस्लिम समुदाय के लोग बड़ी बेसब्री से रमजान के महीने का इंतजार करते हैं। तीस दिनों तक चलने वाले इस महीने में विशेष नमाज अदा की जाती है, जिसको तराबी कहा जाता है। इस समय लोग अल्लाह से अपने गुनाहों की माफी मांगते हैं । अल्लाह भी अपने बंदों को बेशुमार रहमतों से नवाजता है और जहन्नुम के दरवाजों को बंद कर जन्नत के दरवाजों को खोल देता है।

रमजान की इबादत का मिलता है कई गुना सवाब
मुस्लिम समुदाय में रमजान का महत्व इसलिए भी ज्यादा है कि मान्यता है इस मुकद्दस महीने में की गई इबादत का सवाब दूसरे महीनों के मुकाबले कई गुना ज्यादा मिलता है। रमजान के महीने में कुरान पढ़ने का भी काफी महत्व बतलाया गया है क्योंकि रमजान महीने के 21वें रोजे को पवित्र कुरान अस्तित्व में आई थी। रमजान के महीने में चांद दिखने के साथ ही तराबी पढ़ने का सिलसिला शुरू हो जाता है। मान्यता है कि रमजान के मुकद्दस महीने में अल्लाह अपने बंदों की हर जायज दुआ को कुबूल कर उसके गुनाहों को माफ करता है।
रमजान में सहरी और इफ्तार का है खास महत्व
रमजान में सहरी और इफ्तार का भी बड़ा महत्व बतलाया गया है। सहरी सूर्योदय से पहले खाए गए खाने को कहते हैं। सहरी के साथ रोजे का प्रारंभ किया जाता है। मान्यता है कि पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने सहरी करने को सुन्नत बतलाया है और सहरी करने से बरकत आती है और सवाब मिलता है। शाम को मगरीब की नमाज के बाद जब रोजा खोला जाता है तो उसको इफ्तार कहते हैं। इफ्तार के समय दिल से मांगी गई जायज दुआओं को अल्लाह कबूल करता है।
जहन्नुम से बचाकर जन्नत देता है रमजान
इस्लाम में रमजान के महीने को तीन अशरों या हिस्सों में बांटा है। इन तीनों अशरों में 10-10 रोजे आते हैं। मान्यता है कि रमजान के शुरूआत के दस दिनों में अल्लाह की भरपूर रहमत लोगों पर बरसती है। आगे के दस रोजे यानी दूसरा अशरा मगफिरत का होता हैं। ये दस दिन खुदा से माफी मांगने के होते हैं। आखिरत में खुदा से जन्नत देने की दुआ मांगी जाती है और जहन्नुम की आग से बचने की दुआ की जाती है।
रमजान के महीने की खत्म होने के साथ ही ईद का त्यौहार मनाया जाता है और जरूरतमंदों को जकात दी जाती है। वैसे जकात रोजे रखने के दौरान भी दी जाती है, लेकिन ईद कि नमाज से पहले जरूरतमंदों में फितरा बांटा जाता है। इस वजह से ईद को ईद-उल-फितर कहा जाता है।
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ऐस्ट्रो  धर्म : 



अक्षय तृतीया को वर्ष के सर्वश्रेष्ठ मुहूर्तों में से एक माना जाता है। साल में कुछ चुनिंदा तिथियां ऐसी होती है जब पूरे दिन शुभ मुहूर्त रहते हैं और शुभ कार्य के लिए पंचाग में मुहूर्त को देखने की जरूरत नहीं होती है। इसलिए अक्षय तृतीया को स्वयंसिद्ध मुहूर्त माना जाता है। बगैर पंचाग देखे आप शुभ व मांगलिक कार्य कर सकते हैं। इस दिन किए गए शुभ कार्य को अक्षय फल मिलता है इसलिए इस तिथि को अक्षय तृतीया कहा जाता है। 

अक्षय तृतीया पर करें पितृों के लिए दान
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अक्षय तृतीया के दिन पितृों के निमित्त किया गया तर्पण, पिण्डदान या किसी और प्रकार का दान, अक्षय फल प्रदान करता है। इस दिन गंगा स्नान या किसी पवित्र नदी में स्नान करने और भगवत पूजन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस दिन किया गया जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान अक्षय फल प्रदान करता है। अक्षय तृतीया यदि सोमवार और रोहिणी नक्षत्र में आए तो इस दिन किए गए दान, पुण्य और जप, तप का फल कई गुना बढ़ जाता है। यदि यह तिथि तृतीया मध्याह्न से पहले शुरू होकर प्रदोष काल तक रहे तो उत्तम फलदायी होती है। आज के दिन भगवान अक्षम्य पापों को भी माफ कर देता है।
ब्रह्म मुहूर्त में गंगा स्नान से मिलता है अक्षय फल
अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर समुद्र या गंगा स्नान करें। अभी लॉकडाउन की वजह से घर से नहीं जा सकते हैं तो घर पर स्वच्छ जल में गंगाजल मिलाकर स्नान करें। भगवान विष्णु की प्रतिमा का पंचामृत से स्नान करवा कर कुमकुम, अबीर, गुलाल, वस्त्र, सुगंधित फूल, आदि समर्पित करें। गाय के घी का दीपक और धूपबत्ती जलाएं। ऋतुफल, पंचामृत, मिठाई, पंचमेवा आदि का भोग लगाएं। श्रीहरी की आरती उतारें। इस दिन ब्राह्मणों को भोजन करवाकर दक्षिणा देने का भी बड़ा महत्व है। इस दिन ब्राह्मणभोज का आयोजन करना कल्याणकारी माना जाता है।
शीतल प्रकृति की वस्तुओं का करे दान
इस दिन शीतल प्रकृति के सत्तु का सेवन करना, नए वस्त्र और आभूषण धारण करने का भी महत्व है। अक्षय तृतीया के समय गर्मी काफी होती है इसलिए इस दिन जल से भरे घड़े, सकोरे, पंखे, खडाऊँ, छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककड़ी, शक्कर, साग, इमली, सत्तू आदि ग्रीष्मकाल में काम आनेवाली वस्तुओं और खाद्य सामग्री का दान करना फलदायी माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन जिन वस्तुओं का हम दान करते हैं वे सभी हमको स्वर्गलोक में या अगले जन्म में प्राप्त होती है।

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ऐस्ट्रो  धर्म : 

भगवान परशुराम को श्रीहरी का छठा अवतार माना जाता है। उनका जन्म वैशाख शुक्ल की तृतीया तिथि को जानापाव पर्वत पर हुआ था। उनके पिता भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि ने पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन किया था, जिससे प्रसन्न होकर देवराज इन्द्र के वरदान से परशुराम का जन्म हुआ था। उनकी माता का नाम रेणुका था। जमदग्नि ऋषि के पुत्र होने के कारण वह जामदग्न्य और शिवजी के द्वारा परशु प्रदान करने से वह परशुराम कहलाये।

ब्रहमर्षि विश्वामित्र थे परशुरामजी के गुरु
भगवान परशुराम की प्रारंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र और महर्षि ऋचीक के आश्रम में संपन्न हुई थी। परशुराम को महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और कश्यप ऋषि से अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ था। तत्पश्चात कैलाश पर्वत पर तपस्या कर उन्होंने दिव्यास्त्र विद्युदभि नाम का परशु प्राप्त किया था। महादेव ने उनको श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु प्रदान किया था। चक्रतीर्थ में भगवान परशुराम ने कठोर तप किया था इससे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उनको चिरंजीवी होने का वरदान दिया था।
भगवान परशुराम पराक्ररमी प्रसिद्ध योद्धाओं के गुरु रहे हैं। उन्होंने भीष्म, द्रोण और कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। भगवान परशुराम का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण जैसे पौराणिक ग्रंथों में मिलता है। मान्यता है कि परशुरामजी ने तीर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पीछे धकेल कर नई भूमि का निर्माण किया था।
परशुरामजी ने किया था सहस्त्रार्जुन का वध
एक बार हैहय वंश के राजा का‌र्त्तवीर्यअर्जुन ने तपस्या कर भगवान दत्तात्रेय से सहस्त्र भुजाएँ और युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर प्रप्त कर लिया। वह एक बार जंगल में शिकार करता हुआ जमदग्नि मुनि के आश्रम में जा पहुँचा। वह आश्रम से देवराज इन्द्र द्वारा दी गई कपिला कामधेनु को बलपूर्वक ले जाने लगा। तब परशुराम ने सहस्त्रार्जुन की सभी भुजाओं को काटते हुए उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने इसका बदला लेते हुए उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। उनकी माता भी अपने पति के साथ सती हो गई। इससे क्रोधित होकर परशुरामजी ने महिष्मती नगर पर आक्रमण कर उसके ऊपर कब्जा कर लिया और इसके बाद 21 बार उन्होंने पृथ्वी को क्षत्रिय विहिन कर दिया। कहा तो यह भी जाता है कि उन्होंने अपने पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया था। इसके बाद महर्षि ऋचीक ने परशुराम को आगे और संहार करने से रोका।

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भाई दूज (भातृद्वितीया) कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाए जाने वाला हिन्दू धर्म का पर्व है जिसे यम द्वितीया भी कहते हैं। भाईदूज में हर बहन रोली एवं अक्षत से अपने भाई का तिलक कर उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए आशीष देती हैं। भाई अपनी बहन को कुछ उपहार या दक्षिणा देता है। भाईदूज दिवाली के दो दिन बाद आने वाला ऐसा पर्व है, जो भाई के प्रति बहन के स्नेह को अभिव्यक्त करता है एवं बहनें अपने भाई की खुशहाली के लिए कामना करती हैं। इस त्योहार के पीछे एक किंवदंती यह है कि यम देवता ने अपनी बहन यमी (यमुना) को इसी दिन दर्शन दिया था, जो बहुत समय से उससे मिलने के लिए व्याकुल थी। अपने घर में भाई यम के आगमन पर यमुना ने प्रफुल्लित मन से उसकी आवभगत की। यम ने प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि इस दिन यदि भाई-बहन दोनों एक साथ यमुना नदी में स्नान करेंगे तो उनकी मुक्ति हो जाएगी। इसी कारण इस दिन यमुना नदी में भाई-बहन के एक साथ स्नान करने का बड़ा महत्व है। इसके अलावा यमी ने अपने भाई से यह भी वचन लिया कि जिस प्रकार आज के दिन उसका भाई यम उसके घर आया है, हर भाई अपनी बहन के घर जाए। तभी से भाईदूज मनाने की प्रथा चली आ रही है। जिनकी बहनें दूर रहती हैं, वे भाई अपनी बहनों से मिलने भाईदूज पर अवश्य जाते हैं और उनसे टीका कराकर उपहार आदि देते हैं। बहनें पीढियों पर चावल के घोल से चौक बनाती हैं। इस चौक पर भाई को बैठा कर बहनें उनके हाथों की पूजा करती हैं।
विधि

इस पूजा में भाई की हथेली पर बहनें चावल का घोल लगाती हैं उसके ऊपर सिन्दूर लगाकर कद्दू के फूल, पान, सुपारी मुद्रा आदि हाथों पर रखकर धीरे धीरे पानी हाथों पर छोड़ते हुए कुछ मंत्र बोलती हैं जैसे "गंगा पूजे यमुना को यमी पूजे यमराज को, सुभद्रा पूजा कृष्ण को, गंगा यमुना नीर बहे मेरे भाई की आयु बढ़े" इसी प्रकार कहीं इस मंत्र के साथ हथेली की पूजा की जाती है " सांप काटे, बाघ काटे, बिच्छू काटे जो काटे सो आज काटे" इस तरह के शब्द इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि ऐसी मान्यता है कि आज के दिन अगर भयंकर पशु काट भी ले तो यमराज के दूत भाई के प्राण नहीं ले जाएंगे। कहीं कहीं इस दिन बहनें भाई के सिर पर तिलक लगाकर उनकी आरती उतारती हैं और फिर हथेली में कलावा बांधती हैं। भाई का मुंह मीठा करने के लिए उन्हें माखन मिस्री खिलाती हैं। संध्या के समय बहनें यमराज के नाम से चौमुख दीया जलाकर घर के बाहर रखती हैं। इस समय ऊपर आसमान में चील उड़ता दिखाई दे तो बहुत ही शुभ माना जाता है। इस संदर्भ में मान्यता यह है कि बहनें भाई की आयु के लिए जो दुआ मांग रही हैं उसे यमराज ने कुबूल कर लिया है या चील जाकर यमराज को बहनों का संदेश सुनाएगा।
मान्यता

भारतीय में जितने भी पर्व त्यौहार होते हैं वे कहीं न कहीं लोकमान्यताओं एवं कथाओं से जुड़ी होती हैं। इस त्यौहार की भी एक पौराणिक कथा है। कथा के अनुसार। यमी यमराज की बहन हैं जिनसे यमराज काफी प्रेम व स्नेह रखते हैं। कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को एक बार जब यमराज यमी के पास पहुंचे तो यमी ने अपने भाई यमराज की खूब सेवा सत्कार की। बहन के सत्कार से यमराज काफी प्रसन्न हुए और उनसे कहा कि बोलो बहन क्या वरदान चाहिए। भाई के ऐसा कहने पर यमी बोली की जो प्राणी यमुना नदी के जल में स्नान करे वह यमपुरी न जाए। यमी की मांग को सुनकर यमराज चिंतित हो गये। यमी भाई की मनोदशा को समझकर यमराज से बोली अगर आप इस वरदान को देने में सक्षम नहीं हैं तो यह वरदान दीजिए कि आज के दिन जो भाई बहन के घर भोजन करे और मथुरा के विश्राम घट पर यमुना के जल में स्नान करे उस व्यक्ति को यमलोक नहीं जाना पड़े। इस पौराणिक कथा के अनुसार आज भी परम्परागत तौर पर भाई बहन के घर जाकर उनके हाथों से बनाया भोजन करते हैं ताकि उनकी आयु बढ़े और यमलोक नहीं जाना पड़े। भाई भी अपने प्रेम व स्नेह को प्रकट करते हुए बहन को आशीर्वाद देते है और उन्हें वस्त्र, आभूषण एवं अन्य उपहार देकर प्रसन्न करते हैं।

चित्रगुप्त जयंती
इसके अलावा कायस्थ समाज में इसी दिन अपने आराध्य देव चित्रगुप्त की पूजा की जाती है। कायस्थ लोग स्वर्ग में धर्मराज का लेखा-जोखा रखने वाले चित्रगुप्त का पूजन सामूहिक रूप से तस्वीरों अथवा मूर्तियों के माध्यम से करते हैं। वे इस दिन कारोबारी बहीखातों की पूजा भी करते हैं। उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में इसी दिन 'गोधन' नामक पर्व मनाया जाता है जो भाईदूज की तरह होता है। Aaj Ki Delhi.in/ The 24x7 news/ Indian news Online/ Prime News.live/Astro Dharm/ Yograaj Sharma/ 7011490810



गोवर्धन पूजा हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है।
कथा

दीपावली की अगली सुबह गोवर्धन पूजा की जाती है। लोग इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं। इस त्यौहार का भारतीय लोकजीवन में काफी महत्व है। इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है। इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है। गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है। शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती जैसे नदियों में गंगा। गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है। देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं। इनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है। इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है। गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की। जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा और गोप-गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे। सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा और हर वर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।

कथा

गोवर्धन पूजा के सम्बन्ध में एक लोकगाथा प्रचलित है। कथा यह है कि देवराज इन्द्र को अभिमान हो गया था। इन्द्र का अभिमान चूर करने हेतु भगवान श्री कृष्ण जो स्वयं लीलाधारी श्री हरि विष्णु के अवतार हैं ने एक लीला रची। प्रभु की इस लीला में यूं हुआ कि एक दिन उन्होंने देखा के सभी बृजवासी उत्तम पकवान बना रहे हैं और किसी पूजा की तैयारी में जुटे। श्री कृष्ण ने बड़े भोलेपन से मईया यशोदा से प्रश्न किया " मईया ये आप लोग किनकी पूजा की तैयारी कर रहे हैं" कृष्ण की बातें सुनकर मैया बोली लल्ला हम देवराज इन्द्र की पूजा के लिए अन्नकूट की तैयारी कर रहे हैं। मैया के ऐसा कहने पर श्री कृष्ण बोले मैया हम इन्द्र की पूजा क्यों करते हैं? मैईया ने कहा वह वर्षा करते हैं जिससे अन्न की पैदावार होती है उनसे हमारी गायों को चारा मिलता है। भगवान श्री कृष्ण बोले हमें तो गोर्वधन पर्वत की पूजा करनी चाहिए क्योंकि हमारी गाये वहीं चरती हैं, इस दृष्टि से गोर्वधन पर्वत ही पूजनीय है और इन्द्र तो कभी दर्शन भी नहीं देते व पूजा न करने पर क्रोधित भी होते हैं अत: ऐसे अहंकारी की पूजा नहीं करनी चाहिए। लीलाधारी की लीला और माया से सभी ने इन्द्र के बदले गोवर्घन पर्वत की पूजा की। देवराज इन्द्र ने इसे अपना अपमान समझा और मूसलाधार वर्षा शुरू कर दी। प्रलय के समान वर्षा देखकर सभी बृजवासी भगवान कृष्ण को कोसने लगे कि, सब इनका कहा मानने से हुआ है। तब मुरलीधर ने मुरली कमर में डाली और अपनी कनिष्ठा उंगली पर पूरा गोवर्घन पर्वत उठा लिया और सभी बृजवासियों को उसमें अपने गाय और बछडे़ समेत शरण लेने के लिए बुलाया। इन्द्र कृष्ण की यह लीला देखकर और क्रोधित हुए फलत: वर्षा और तेज हो गयी। इन्द्र का मान मर्दन के लिए तब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा कि आप पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियत्रित करें और शेषनाग से कहा आप मेड़ बनाकर पानी को पर्वत की ओर आने से रोकें।
इन्द्र लगातार सात दिन तक मूसलाधार वर्षा करते रहे तब उन्हे एहसास हुआ कि उनका मुकाबला करने वाला कोई आम मनुष्य नहीं हो सकता अत: वे ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और सब वृतान्त कह सुनाया। ब्रह्मा जी ने इन्द्र से कहा कि आप जिस कृष्ण की बात कर रहे हैं वह भगवान विष्णु के साक्षात अंश हैं और पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण हैं। ब्रह्मा जी के मुंख से यह सुनकर इन्द्र अत्यंत लज्जित हुए और श्री कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं आपको पहचान न सका इसलिए अहंकारवश भूल कर बैठा। आप दयालु हैं और कृपालु भी इसलिए मेरी भूल क्षमा करें। इसके पश्चात देवराज इन्द्र ने मुरलीधर की पूजा कर उन्हें भोग लगाया। इस पौराणिक घटना के बाद से ही गोवर्घन पूजा की जाने लगी। बृजवासी इस दिन गोवर्घन पर्वत की पूजा करते हैं। गाय बैल को इस दिन स्नान कराकर उन्हें रंग लगाया जाता है व उनके गले में नई रस्सी डाली जाती है। गाय और बैलों को गुड़ और चावल मिलाकर खिलाया जाता है। Aaj Ki Delhi.in/ The 24x7 news/ Indian news Online/ Prime News.live/Astro Dharm/ Yograaj Sharma/ 7011490810


दीपावली का अर्थ है दीपों की पंक्ति। दीपावली शब्द ‘दीप’ एवं ‘आवली’ की संधिसे बना है। आवली अर्थात पंक्ति, इस प्रकार दीपावली शब्द का अर्थ है, दीपोंकी पंक्ति। भारतवर्षमें मनाए जानेवाले सभी त्यौहारों में दीपावलीका सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदोंकी आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा श्री रामचंद्र अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे। अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से उल्लसित था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीए जलाए। कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। यह पर्व अधिकतर ग्रिगेरियन कैलन्डर के अनुसार अक्टूबर या नवंबर महीने में पड़ता है। दीपावली दीपों का त्योहार है। इसे दीवाली या दीपावली भी कहते हैं। दीवाली अँधेरे से रोशनी में जाने का प्रतीक है। भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है- असतो माऽ सद्गमय, तमसो माऽ ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है। कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफ़ेदी आदि का कार्य होने लगता हैं। लोग दुकानों को भी साफ़ सुथरा का सजाते हैं। बाज़ारों में गलियों को भी सुनहरी झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली से पहले ही घर-मोहल्ले, बाज़ार सब साफ-सुथरे व सजे-धजे नज़र आते हैं।



धार्मिक संदर्भ

दीप जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग कारण या कहानियाँ हैं। राम भक्तों के अनुसार दीवाली वाले दिन अयोध्या के राजा राम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध करके अयोध्या लौटे थे। उनके लौटने कि खुशी मे आज भी लोग यह पर्व मनाते है। कृष्ण भक्तिधारा के लोगों का मत है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था। इस नृशंस राक्षस के वध से जनता में अपार हर्ष फैल गया और प्रसन्नता से भरे लोगों ने घी के दीए जलाए। एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए। जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी दीपावली को ही है। सिक्खों के लिए भी दीवाली महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन ही अमृतसर में १५७७ में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था। और इसके अलावा १६१९ में दीवाली के दिन सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था। नेपालियों के लिए यह त्योहार इसलिए महान है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष शुरू होता है। पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय 'ओम' कहते हुए समाधि ले ली। महर्षि दयानन्द ने भारतीय संस्कृति के महान जननायक बनकर दीपावली के दिन अजमेर के निकट अवसान लिया। इन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में दौलतखाने के सामने ४० गज ऊँचे बाँस पर एक बड़ा आकाशदीप दीपावली के दिन लटकाया जाता था। बादशाह जहाँगीर भी दीपावली धूमधाम से मनाते थे। मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर दीपावली को त्योहार के रूप में मनाते थे और इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में वे भाग लेते थे। शाह आलम द्वितीय के समय में समूचे शाही महल को दीपों से सजाया जाता था एवं लालकिले में आयोजित कार्यक्रमों में हिन्दू-मुसलमान दोनों भाग लेते थे।
पर्वों का समूह दीपावली
रंगोली

दीपावली के दिन भारत में विभिन्न स्थानों पर मेले लगते हैं।[6] दीपावली एक दिन का पर्व नहीं अपितु पर्वों का समूह है। दशहरे के पश्चात ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। लोग नए-नए वस्त्र सिलवाते हैं। दीपावली से दो दिन पूर्व धनतेरस का त्योहार आता है। इस दिन बाज़ारों में चारों तरफ़ जनसमूह उमड़ पड़ता है। बरतनों की दुकानों पर विशेष साज-सज्जा व भीड़ दिखाई देती है। धनतेरस के दिन बरतन खरीदना शुभ माना जाता है अतैव प्रत्येक परिवार अपनी-अपनी आवश्यकता अनुसार कुछ न कुछ खरीदारी करता है। इस दिन तुलसी या घर के द्वार पर एक दीपक जलाया जाता है। इससे अगले दिन नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली होती है। इस दिन यम पूजा हेतु दीपक जलाए जाते हैं। अगले दिन दीपावली आती है। इस दिन घरों में सुबह से ही तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। बाज़ारों में खील-बताशे, मिठाइयाँ, खांड़ के खिलौने, लक्ष्मी-गणेश आदि की मूर्तियाँ बिकने लगती हैं। स्थान-स्थान पर आतिशबाजी और पटाखों की दूकानें सजी होती हैं। सुबह से ही लोग रिश्तेदारों, मित्रों, सगे-संबंधियों के घर मिठाइयाँ व उपहार बाँटने लगते हैं। दीपावली की शाम लक्ष्मी और गणेश जी की पूजा की जाती है। पूजा के बाद लोग अपने-अपने घरों के बाहर दीपक व मोमबत्तियाँ जलाकर रखते हैं। चारों ओर चमकते दीपक अत्यंत सुंदर दिखाई देते हैं। रंग-बिरंगे बिजली के बल्बों से बाज़ार व गलियाँ जगमगा उठते हैं। बच्चे तरह-तरह के पटाखों व आतिशबाज़ियों का आनंद लेते हैं। रंग-बिरंगी फुलझड़ियाँ, आतिशबाज़ियाँ व अनारों के जलने का आनंद प्रत्येक आयु के लोग लेते हैं। देर रात तक कार्तिक की अँधेरी रात पूर्णिमा से भी से भी अधिक प्रकाशयुक्त दिखाई पड़ती है। दीपावली से अगले दिन गोवर्धन पर्वत अपनी अँगुली पर उठाकर इंद्र के कोप से डूबते ब्रजवासियों को बनाया था। इसी दिन लोग अपने गाय-बैलों को सजाते हैं तथा गोबर का पर्वत बनाकर पूजा करते हैं। अगले दिन भाई दूज का पर्व होता है। दीपावली के दूसरे दिन व्यापारी अपने पुराने बहीखाते बदल देते हैं। वे दूकानों पर लक्ष्मी पूजन करते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से धन की देवी लक्ष्मी की उन पर विशेष अनुकंपा रहेगी। कृषक वर्ग के लिये इस पर्व का विशेष महत्त्व है। खरीफ़ की फसल पक कर तैयार हो जाने से कृषकों के खलिहान समृद्ध हो जाते हैं। कृषक समाज अपनी समृद्धि का यह पर्व उल्लासपूर्वक मनाता हैं।
परंपरा

अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है। यह पर्व सामूहिक व व्यक्तिगत दोनों तरह से मनाए जाने वाला ऐसा विशिष्ट पर्व है जो धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक विशिष्टता रखता है। हर प्रांत या क्षेत्र में दीवाली मनाने के कारण एवं तरीके अलग हैं पर सभी जगह कई पीढ़ियों से यह त्योहार चला आ रहा है। लोगों में दीवाली की बहुत उमंग होती है। लोग अपने घरों का कोना-कोना साफ़ करते हैं, नये कपड़े पहनते हैं। मिठाइयों के उपहार एक दूसरे को बाँटते हैं, एक दूसरे से मिलते हैं। घर-घर में सुन्दर रंगोली बनायी जाती है, दिये जलाए जाते हैं और आतिशबाजी की जाती है। बड़े छोटे सभी इस त्योहार में भाग लेते हैं। अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है। हर प्रांत या क्षेत्र में दीवाली मनाने के कारण एवं तरीके अलग हैं पर सभी जगह कई पीढ़ियों से यह त्योहार चला आ रहा है। लोगों में दीवाली की बहुत उमंग होती है। Aaj Ki Delhi.in/ The 24x7 news/ Indian news Online/ Prime News.live/Astro Dharm/ Yograaj Sharma/ 7011490810

नरक चतुर्दशी की जिसे छोटी दीपावली भी कहते हैं।
यह त्यौहार नरक चौदस या नर्क चतुर्दशी या नर्का पूजा के नाम से भी प्रसिद्ध है। मान्यता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल तेल लगाकर अपामार्ग (चिचड़ी) की पत्तियाँ जल में डालकर स्नान करने से नरक से मुक्ति मिलती है। विधि-विधान से पूजा करने वाले व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो स्वर्ग को प्राप्त करते हैं। शाम को दीपदान की प्रथा है जिसे यमराज के लिए किया जाता है। दीपावली को एक दिन का पर्व कहना न्योचित नहीं होगा। इस पर्व का जो महत्व और महात्मय है उस दृष्टि से भी यह काफी महत्वपूर्ण पर्व व हिन्दुओं का त्यौहार है। यह पांच पर्वों की श्रृंखला के मध्य में रहने वाला त्यौहार है जैसे मंत्री समुदाय के बीच राजा। दीपावली से दो दिन पहले धनतेरस फिर नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली फिर दीपावली और गोधन पूजा, भाईदूज।



संदर्भ

नरक चतुर्दशी की जिसे छोटी दीपावली भी कहते हैं। इसे छोटी दीपावली इसलिए कहा जाता है क्योंकि दीपावली से एक दिन पहले रात के वक्त उसी प्रकार दीए की रोशनी से रात के तिमिर को प्रकाश पुंज से दूर भगा दिया जाता है जैसे दीपावली की रात। इस रात दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दान्त असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष में दीयों की बारत सजायी जाती है। इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक अन्य कथा यह है कि रन्ति देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे। उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके समझ यमदूत आ खड़े हुए। यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आए हो क्योंकि आपके यहां आने का मतलब है कि मुझे नर्क जाना होगा। आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है। पुण्यात्मा राज की अनुनय भरी वाणी सुनकर यमदूत ने कहा हे राजन् एक बार आपके द्वार से एक ब्राह्मण भूखा लौट गया यह उसी पापकर्म का फल है।
दूतों की इस प्रकार कहने पर राजा ने यमदूतों से कहा कि मैं आपसे विनती करता हूं कि मुझे वर्ष का और समय दे दे। यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी। राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुंचा और उन्हें सब वृतान्त कहकर उनसे पूछा कि कृपया इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय है। ऋषि बोले हे राजन् आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्रह्मणों को भोजन करवा कर उनसे अनके प्रति हुए अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें।
राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया। इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ। उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल लगाकर और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर उससे स्नान करने का बड़ा महात्मय है। स्नान के पश्चात विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना अत्यंत पुण्यदायक कहा गया है। इससे पाप कटता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है। कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को उपरोक्त कारणों से नरक चतुर्दशी, रूप चतुर्दशी और छोटी दीपावली के नाम से जाना जाता है। और इसके बाद क्रमशः दीपावली, गोधन पूजा और भाई दूज मनायी जाती है।
कथा

पौराणिक कथा है कि इसी दिन कृष्ण ने एक दैत्य नरकासुर का संहार किया था। सूर्योदय से पूर्व उठकर, स्नानादि से निपट कर यमराज का तर्पण करके तीन अंजलि जल अर्पित करने का विधान है। संध्या के समय दीपक जलाए जाते हैं। Aaj Ki Delhi.in/ The 24x7 news/ Indian news Online/ Prime News.live/Astro Dharm/ Yograaj Sharma/ 7011490810


जिस प्रकार देवी लक्ष्मी सागर मंथन से उत्पन्न हुई थी उसी प्रकार भगवान धनवन्तरि भी अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए हैं। देवी लक्ष्मी हालांकि की धन देवी हैं परन्तु उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए आपको स्वस्थ्य और लम्बी आयु भी चाहिए यही कारण है दीपावली दो दिन पहले से ही यानी धनतेरस से ही दीपामालाएं सजने लगती हें। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन ही धन्वन्तरि का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को धनतेरस के नाम से जाना जाता है। धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरी चुकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। कहीं कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें 13 गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।


प्रथा

धनतेरस के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है। अगर सम्भव न हो तो कोइ बर्तन खरिदे। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में संतोष रूपी धन का वास होता है। संतोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है। जिसके पास संतोष है वह स्वस्थ है सुखी है और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वन्तरी जो चिकित्सा के देवता भी हैं उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। लोग इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी गणेश की पूजा हेतु मूर्ति भी खरीदते हें। यह दिन व्यापारियोँ
कथा

धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा भी है। इस प्रथा के पीछे एक लोक कथा है, कथा के अनुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। |ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राजा इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा परंतु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे उसी वक्त उनमें से एक ने यमदेवता से विनती की हे यमराज क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु के लेख से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यमदेवता बोले हे दूत अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की रात जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीप माला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं।
धन्वंतरि

धन्वन्तरि देवताओं के वैद्य हैं और चिकित्सा के देवता माने जाते हैं इसलिए चिकित्सकों के लिए धनतेरस का दिन बहुत ही महत्व पूर्ण होता है। धनतेरस के संदर्भ में एक लोक कथा प्रचलित है कि एक बार यमराज ने यमदूतों से पूछा कि प्राणियों को मृत्यु की गोद में सुलाते समय तुम्हारे मन में कभी दया का भाव नहीं आता क्या। दूतों ने यमदेवता के भय से पहले तो कहा कि वह अपना कर्तव्य निभाते है और उनकी आज्ञा का पालन करते हें परंतु जब यमदेवता ने दूतों के मन का भय दूर कर दिया तो उन्होंने कहा कि एक बार राजा हेमा के ब्रह्मचारी पुत्र का प्राण लेते समय उसकी नवविवाहिता पत्नी का विलाप सुनकर हमारा हृदय भी पसीज गया लेकिन विधि के विधान के अनुसार हम चाह कर भी कुछ न कर सके। एक दूत ने बातों ही बातों में तब यमराज से प्रश्न किया कि अकाल मृत्यु से बचने का कोई उपाय है क्या। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यम देवता ने कहा कि जो प्राणी धनतेरस की शाम यम के नाम पर दक्षिण दिशा में दीया जलाकर रखता है उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती है। इस मान्यता के अनुसार धनतेरस की शाम लोग आँगन मे यम देवता के नाम पर दीप जलाकर रखते हैं। इस दिन लोग यम देवता के नाम पर व्रत भी रखते हैं। धनतेरस के दिन दीप जलाककर भगवान धन्वन्तरि की पूजा करें। भगवान धन्वन्तरी से स्वास्थ और सेहतमंद बनाये रखने हेतु प्रार्थना करें। चांदी का कोई बर्तन या लक्ष्मी गणेश अंकित चांदी का सिक्का खरीदें। नया बर्तन खरीदे जिसमें दीपावली की रात भगवान श्री गणेश व देवी लक्ष्मी के लिए भोग चढ़ाएं।


साभार  -wiki Aaj Ki Delhi.in/ The 24x7 news/ Indian news Online/ Prime News.live/Astro Dharm/ Yograaj Sharma/ 7011490810

रक्षा बंधन के पर्व की वैदिक विधि
.वैदिक रक्षा सूत्र बनाने की विधि

इसके लिए 5 वस्तुओं की आवश्यकता होती है .
1 दूर्वा ;घासद्ध
2 अक्षत ;चावलद्ध
3 केसर
4 चन्दन
5 सरसों के दाने ।

इन 5 वस्तुओं को रेशम के कपड़े में लेकर उसे बांध दें या सिलाई कर देंए फिर  उसे कलावा में पिरो दें, इस प्रकार वैदिक राखी तैयार हो जाएगी ।
इन पांच वस्तुओं का महत्त्व .
1 दूर्वा . जिस प्रकार दूर्वा का एक अंकुर बो देने पर तेज़ी से फैलता है और  हज़ारों की संख्या में उग जाता हैए उसी प्रकार मेरे भाई का वंश और उसमे  सदगुणों का विकास तेज़ी से हो । सदाचारए मन की पवित्रता तीव्रता से बदता  जाए । दूर्वा गणेश जी को प्रिय है अर्थात हम जिसे राखी बाँध रहे हैंए उनके  जीवन में विघ्नों का नाश हो जाए ।
2 अक्षत . हमारी गुरुदेव के प्रति श्रद्धा कभी क्षत.विक्षत ना हो सदा अक्षत रहे ।
3 केसर . केसर की प्रकृति तेज़ होती है अर्थात हम जिसे राखी बाँध रहे हैंए वह  तेजस्वी हो । उनके जीवन में आध्यात्मिकता का तेजए भक्ति का तेज कभी कम  ना हो ।
4 चन्दन . चन्दन की प्रकृति तेज होती है और यह सुगंध देता है । उसी प्रकार  उनके जीवन में शीतलता बनी रहेए कभी मानसिक तनाव ना हो । साथ ही उनके  जीवन में परोपकारए सदाचार और संयम की सुगंध फैलती रहे ।
5 सरसों के दाने . सरसों की प्रकृति तीक्ष्ण होती है अर्थात इससे यह संकेत  मिलता है कि समाज के दुर्गुणों कोए कंटकों को समाप्त करने में हम तीक्ष्ण बनें  ।
इस प्रकार इन पांच वस्तुओं से बनी हुई एक राखी को सर्वप्रथम भगवान .चित्र  पर अर्पित करें । फिर बहनें अपने भाई कोए माता अपने बच्चों कोए दादी अपने  पोते को शुभ संकल्प करके बांधे ।
इस प्रकार इन पांच वस्तुओं से बनी हुई वैदिक राखी को शास्त्रोक्त नियमानुसार  बांधते हैं हम पुत्र.पौत्र एवं बंधुजनों सहित वर्ष भर सूखी रहते हैं ।
राखी बाँधते समय बहन यह मंत्र बोले
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलरू
तेन त्वां अभिबन्धामि रक्षे मा चल मा चल
शिष्य गुरु को रक्षासूत्र बाँधते समय
ष्अभिबन्धामि ष् के स्थान पर ष्रक्षबन्धामिष् कहे

और चाकलेट ना खिलाकर भारतीय मिठाई या गुड से मुहं मीठा कराएँ।


 प्रभा बिस्सा
  बीकानेर
बाजार में राखी खरीदती महिलाये

रक्षाबंधन का त्योहार श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रक्षाबन्धन  हिन्दुओ का  त्यौहार है । श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी  या सलूनो भी कहते हैं।  रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बन्धियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। कभी कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बाँधी जाती है। अब तो प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बाँधने की परम्परा भी प्रारम्भ हो गयी है। हिन्दुस्तान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुरुष सदस्य परस्पर भाईचारे के लिये एक दूसरे को भगवा रंग की राखी बाँधते हैं। हिन्दू धर्म के सभी धार्मिक अनुष्ठानों में रक्षासूत्र बाँधते समय कर्मकाण्डी पण्डित या आचार्य संस्कृत में एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। यह श्लोक रक्षाबन्धन का अभीष्ट मन्त्र है।[क] इस श्लोक का हिन्दी भावार्थ है- "जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ, तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।"


कैसे बांधते है रक्षासूत्र
रक्षाबन्धन का  अनुष्ठान


प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियाँ और महिलाएँ पूजा की थाली सजाती हैं। थाली में राखी के साथ रोली या हल्दी, चावल, दीपक, मिठाई और कुछ पैसे भी होते हैं। लड़के और पुरुष तैयार होकर टीका करवाने के लिये पूजा या किसी उपयुक्त स्थान पर बैठते हैं। पहले अभीष्ट देवता की पूजा की जाती है, इसके बाद रोली या हल्दी से भाई का टीका करके चावल को टीके पर लगाया जाता है और सिर पर छिड़का जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, दाहिनी कलाई पर राखी बाँधी जाती है और पैसों से न्यौछावर करके उन्हें गरीबों में बाँट दिया जाता है। भारत के अनेक प्रान्तों में भाई के कान के ऊपर भोजली या भुजरियाँ लगाने की प्रथा भी है। भाई बहन को उपहार या धन देता है। इस प्रकार रक्षाबन्धन के अनुष्ठान को पूरा करने के बाद ही भोजन किया जाता है। प्रत्येक पर्व की तरह उपहारों और खाने-पीने के विशेष पकवानों का महत्व रक्षाबन्धन में भी होता है। आमतौर पर दोपहर का भोजन महत्वपूर्ण होता है और रक्षाबन्धन का अनुष्ठान पूरा होने तक बहनों द्वारा व्रत रखने की भी परम्परा है। पुरोहित तथा आचार्य सुबह सुबह यजमानों के घर पहुँचकर उन्हें राखी बाँधते हैं और बदले में धन वस्त्र और भोजन आदि प्राप्त करते हैं। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य और फ़िल्में भी इससे अछूते नहीं हैं।


राखी के धागों का संबंध मन की पवित्र भावनाओं से हैं।
 
राखी के इन धागों ने अनेक कुरबानियाँ कराई हैं। चित्तौड़ की राजमाता कर्मवती ने मुग़ल बादशाह हुमायूँ को राखी भेजकर अपना भाई बनाया था और वह भी संकट के समय बहन कर्मवती की रक्षा के लिए चित्तौड़ आ पहुँचा था। आजकल तो बहन भाई को राखी बाँध देती है और भाई बहन को कुछ उपहार देकर अपना कर्तव्य पूरा कर लेता है। लोग इस बात को भूल गए हैं कि राखी के धागों का संबंध मन की पवित्र भावनाओं से हैं।


राजस्थान में  राखी

राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बाँधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुँदना लगा होता है। यह केवल भगवान को ही बाँधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है। जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर और मिनकानाडी पर गोबर , मिट्टी और भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकर्त्ता अरुंधती, गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के दर्भ के चट (पूजास्थल) बनाकर उनकी मन्त्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं। उनका तर्पण कर पितृॠण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनायी जाती है। राखी को कच्चे दूध से अभिमन्त्रित करते हैं और इसके बाद ही भोजन करने का प्रावधान है।
होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं, और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है।

भगवान नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध

होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।

मौज मस्ती और खुशियां मनाने की पंजाबी संस्कृति की झलक हर साल तेरह जनवरी को मनाए जाने वाले लोहडी पर्व में पूरे शबाब पर दिखाई देती है। लोहडी का त्योहार पंजाब में ही नहीं बल्कि पडोसी हरियाणा,दिल्ली, हिमाचल प्रदेश और अन्य उत्तरी राज्यों में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। पंजाब में गेहूं की फसल अक्टूबर में बोई जाती है और मार्च में काटी जाती है। लोहडी पर्व तक यह पता चल जाता है कि फसल कैसी होगी इसलिए लोहडी के समय लोग उत्साह से भरे रहते हैं। पंजाब में लोहडी के दिन सरसों का साग, मक्के की रोटी तथा गन्ने के रस और चावल से बनी खीर बनाई जाती है। नृत्य पंजाब की संस्कृति का एक अहम हिस्सा होता है। लोहडी के दिन लोग खूब भांगडा करते हैं और शाम होते ही सूखी लकड़ियां जलाकर नाचते-गाते हैं। यह सिलसिला देर रात तक चलता है। ढोल की थाप पर थिरकते लोग रेवडी,मूंगफली का स्वाद लेते हुए नाचते-गाते हैं। लोहडी को लेकर युवाओं में कुछ अधिक ही उत्साह रहता है। युवक-युवतियां शाम होते ही सजधज कर अग्नि प्रज्ज्वलित करके नाचते-गाते हैं। इस दिन उन्हें नाचते-गाते हैं। उनकी खुशी देखते ही बनती है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी लोहडी बडे उत्साह के साथ मनाई जाती है। दिल्ली में पंजाबी लोगों की अच्छी खासी तादाद है और इस पर्व को राजधानी में भी मौजमस्ती के साथ मनाया जाता है। केवल पंजाबी समुदाय के लोग ही नहीं बल्कि हर समुदाय के लोग इस पर्व को मनाते है और इसका पूरा लुत्फ उठाते है। लोहडी के दिन लकडियां प्रज्ज्वलित करके लोग उसके चारों और नाचते गाते और मूंगफली तथा गजक खाते हुए चक्कर लगाते हैं। लोहडी के दिन कुछ विशेष गीत भी गाये जाते है। इन गीतों में ये गीत भी शामिल है: सुन्दर मुन्द्ररिये हो तेरा कौन वेचारा हो। दुल्ला भट्टी वाला हो। दुल्ले धी बिआई हो सेर सकर पाई हो। लोहडी के दिन यह गीत भी खूब गाया जाता है देह माई लोहडी जीवे तेरी जोडी तेरे कोठे ऊपर मोर. रब्ब पुत्तर देवे होर साल नूं फेर आवां। लोहडी पर्व आग और सूर्य को समर्पित होता है। इस दौरान सूर्य मकर राशि से उत्तर की आ॓र आ जाता है। अग्नि देवता का आध्यात्मिक महत्व भी होता है। लोग पापकार्न,मूंगफली,रेवडी,गज्जक,मिठाइयां आदि प्रसाद के रूप में चढ़ात हैं। किसानों के लिए लोहडी का विशेष महत्व है। वे इसे रबी की फसल पकने की खुशी में मनाते है। इस अवसर पर अग्नि को नमन करते हुए किसान अच्छी फसल की कामना करते हैं।

नवरात्रि एक हिंदू पर्व है। नवरात्रि संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है नौ रातें । यह पर्व साल में चार बार आता है।चैत्र,आषाढ,अश्विन,पोषप्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है। नवरात्रि के नौ रातो में तीन देवियों - महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वतीया सरस्वतीकि तथा दुर्गा के नौ स्वरुपों की पूजा होती है जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं ।

नौ देवियाँ है :-

    श्री शैलपुत्री
    श्री ब्रह्मचारिणी
    श्री चंद्रघंटा
    श्री कुष्मांडा
    श्री स्कंदमाता
    श्री कात्यायनी
    श्री कालरात्रि
    श्री महागौरी
    श्री सिद्धिदात्री

शक्ति की उपासना का पर्व शारदेय नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की । तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। आदिशक्ति के हर रूप की नवरात्र के नौ दिनों में क्रमशः अलग-अलग पूजा की जाती है। माँ दुर्गा की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियाँ देने वाली हैं। इनका वाहन सिंह है और कमल पुष्प पर ही आसीन होती हैं । नवरात्रि के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है। नवदुर्गा और दस महाविधाओं में काली ही प्रथम प्रमुख हैं। भगवान शिव की शक्तियों में उग्र और सौम्य, दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दस महाविधाएँ अनंत सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। दसवें स्थान पर कमला वैष्णवी शक्ति हैं, जो प्राकृतिक संपत्तियों की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी हैं। देवता, मानव, दानव सभी इनकी कृपा के बिना पंगु हैं, इसलिए आगम-निगम दोनों में इनकी उपासना समान रूप से वर्णित है। सभी देवता, राक्षस, मनुष्य, गंधर्व इनकी कृपा-प्रसाद के लिए लालायित रहते हैं।


 
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