Articles by "परशुरामकृतं दुर्गास्तात्रम्"
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ऐस्ट्रो  धर्म : 

रविवार, 26 अप्रैल को परशुराम जयंती है। इस अवसर पर जानिए परशुराम और कर्ण से जुड़ा एक प्रसंग। इस प्रसंग की सीख यह है कि हमें कभी भी झूठ बोलकर विद्या हासिल नहीं करनी चाहिए। महाभारत के अनुसार परशुराम ने सारी पृथ्वी कश्यप ऋषि को दान कर दी। वे अपने सारे अस्त्र-शस्त्र भी ब्राह्मणों को ही दान कर रहे थे। कई ब्राह्मण उनसे शक्तियां मांगने पहुंच रहे थे। द्रौणाचार्य ने भी उनसे कुछ शस्त्र लिए। तभी कर्ण को भी ये बात पता चली। कर्ण ब्राह्मण नहीं था, लेकिन परशुराम जैसे योद्धा से शस्त्र लेने का अवसर वो गंवाना नहीं चाहता था।
कर्ण को एक युक्ति सूझी, उसने ब्राह्मण का वेश बनाकर परशुराम से भेंट की। उस समय तक परशुराम अपने सारे शस्त्र दान कर चुके थे। फिर भी कर्ण की सीखने की इच्छा को देखते हुए, उन्होंने उसे अपना शिष्य बना लिया। कई दिव्यास्त्रों का ज्ञान भी दिया।
एक दिन दोनों गुरु-शिष्य जंगल से गुजर रहे थे। परशुराम को थकान महसूस हुई। उन्होंने कर्ण से कहा कि वे आराम करना चाहते हैं। कर्ण एक घने पेड़ के नीचे बैठ गया और परशुराम उसकी गोद में सिर रखकर सो गए। कर्ण उन्हें हवा करने लगा। तभी कहीं से एक बड़ा कीड़ा आया और उसने कर्ण की जांघ पर डंक मारना शुरू कर दिया।
कर्ण को दर्द हुआ, लेकिन गुरु की नींद खुल गई तो उसके सेवा कर्म में बाधा होगी, यह सोच कर वह चुपचाप डंक की मार सहता रहा। कीड़े ने बार-बार डंक मारकर कर्ण की जांघ को बुरी तरह घायल कर दिया। उसकी जांघ से खून बहने लगा, खून की छोटी सी धारा परशुराम को लगी तो वे जाग गए। उन्होंने कीड़े को हटाया, फिर कर्ण से पूछा कि तुमने उस कीड़े को हटाया क्यों नहीं।
उसने कहा मैं थोड़ा भी हिलता तो आपकी नींद खुल जाती, मेरा सेवा धर्म टूट जाता। ये अपराध होता। परशुराम ने तत्काल समझ लिया। उन्होंने कहा इतनी सहनशक्ति किसी ब्राह्मण में नहीं हो सकती। तुम जरूर कोई क्षत्रिय हो। कर्ण ने अपनी गलती मान ली। परशुराम ने उसे शाप दिया कि जब उसे इन दिव्यास्त्रों की सबसे ज्यादा जरूरत होगी, वो इसके प्रयोग की विधि भूल जाएगा। ऐसा हुआ भी, जब महाभारत युद्ध में कर्ण और अर्जुन के बीच निर्णायक युद्ध चल रहा था, तब कर्ण कोई दिव्यास्त्र नहीं चला सका, सभी के संधान की विधि वो भूल गया।
इस प्रसंग से स्पष्ट होता है कि कभी झूठ का सहारा लेकर कोई काम नहीं करना चाहिए। अन्यथा परिणाम विपरीत ही आएंगे। झूठ कुछ समय का सुख दे सकता है, लेकिन ये भविष्य में मुसीबत अवश्य बनता है।
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कोटपूतली। निकटवर्ती ग्राम नारेहड़ा मे बावड़ी वाले श्री ठाकुरजी मंदिर मे श्री श्याम बालक मंडल व ग्रामवासियों द्वारा पौषबड़ा महोत्सव का आयोजन किया गया। ग्रामीण अजयसिंह ने बताया कि हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी श्री राधा-कृष्ण को हलवे व पौषबड़े का भोग महंत राघवाचार्य ने लगाया तथा उनकी आरती उतारी व इसके बाद पंगत प्रसादी का वितरण किया गया। इस मौके पर प्रमोद अग्रवाल, संजय जोशी, राधेश्याम जांगिड़, रोताशसिंह, आजाद, विष्णु, गोपाल, सीताराम, मनोज अग्रवाल आदि ग्रामीण उपस्थित थे।
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कोटपूतली। कस्बे के निकटवर्ती ग्राम नारेहड़ा में विगत पांच दिनों से जारी संगीतमय श्रीमद भागवत कथा सप्ताह में सोमवार को भगवान श्री कृष्ण के जन्म की सजीव झांकी सजाई गई। इस अवसर पर कथा वाचक महाराज ने सूर्यवंश का वर्णन करते हुए भगवान श्रीरामचन्द्र के अवतार के बारे में बताया। उन्होने कहा कि भगवान श्रीराम मर्यादा पुरूषोत्तम थे। जो हर कार्य संयम धारण कर रिती निति व मर्यादा के अनुसार करते थे। भगवान राम के जीवन से पूरे भारतवर्ष को एक अच्छे पुत्र,पति,पिता व एक आदर्श राजा के गुणों का उदाहरण मिलता है। हमें भी इस कलयुग में इन सदगुणों को अपनाकर अपने जीवन का कल्याण करना चाहिये। उन्होने भगवान राम के पराक्रम व वंश के बारे में भी विस्तार से वर्णन करते हुए बताया कि चन्द्रवंश में भगवान राम के बाद श्रीकृष्ण जी ने अवतार लिया था। जो भगवान विष्णु के ही अवतार थे। महाराज ने भगवान कृष्ण के जन्म का संगीतमय वर्णन किया। साथ ही जन्म चित्रण की सजीव झांकी भी सजाई गई। बडी संख्या में माताओं व बहिनों ने भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के भजन भी गाये एवं श्रद्वालू भाव विभोर हो उठे। इस अवसर पर अन्नकुट प्रसादी का वितरण भी किया गया। मंगलवार को कथा में श्रीकृष्ण रूकमणी विवाह का वर्णन किया जायेगा। जिसके बाद भागवत आरती व प्रसादी का वितरण होगा।
फोटो-केटीपी डी-भागवत कथा में भगवान श्रीकृष्ण की सजीव झांकी सजाई गई।
 बाद से ही खुलेगी। जिला कलेक्टर का यह आदेश आगामी शीत कालीन अवकाश के शुरू होने तक जारी रहेगा।
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शहर की आरोग्यता, सौहार्द एवं समृद्धि के लिए किया महालक्ष्मी अनुष्ठान।
अजमेर ।  संन्यास आश्रम के अध्ष्ठिाता स्वामी शिवज्योतिषानन्दजी महाराज के सान्निध्य में धन्वन्त्री जयंती के अवसर पर धन्वन्त्री भगवान एवं महालक्ष्मी प्रसन्नार्थ महालक्ष्मी यज्ञ एवं अनुष्ठान महाराजा अग्रसेन पब्लिक स्कूल प्रांगण में आयोजित किया गया। उपरोक्त अनुष्ठान के अवसर पर स्वामी शिवज्योतिषानन्द महाराज ने अपने संदेश में कहा कि यज्ञ हिन्दुओं का श्रेष्ठतम कर्म है। इसलिए हम सभी को यज्ञ करना और करवाना चाहिए उन्होंने इस अवसर पर कहा कि जिस घर में नारी का स्वाभिमान एवं सम्मान कायम रहता है वहीं स्थिर लक्ष्मी निवास करती है। सबसे पहले घर में स्त्री का सम्मान आवष्यक है । इनकी सेवा भी महालक्ष्मी का पूजन एवं सेवा ही है। उन्होंने सफाई अभियान पर बोलते हुए कहा कि घर की स्वच्छता से ज्यादा अडोस-पड़ौस एवं शहर की स्वच्छता है। इस अवसर पर महालक्ष्मी यज्ञ के अतिरिक्त कनकधारा स्तोत्र का सामूहिक महापाठ किया गया। उपरोक्त अनुष्ठान संन्यास आश्रम के आचार्य गोविन्द कोईराला के नेतृत्व में आश्रम के अन्य विद्वान पंडितों तथा सभी वेदपाठी  बालकों द्वारा विधिवत वैदिक मंत्रों एवं रीति से करवाया गया। उपरोक्त कार्यक्रम का संयोजन एवं संचालन उमेश गर्ग ने किया।

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परशुराम उवाच

श्रीकृष्णस्य च गोलोके परिपूर्णतमस्य च:आविर्भूता विग्रहत: पुरा सृष्ट्युन्मुखस्य च॥

सूर्यकोटिप्रभायुक्त ा वस्त्रालंकारभूषिता। वह्निशुद्धांशुकाधाना सुस्मिता सुमनोहरा॥

नवयौवनसम्पन्ना सिन्दूरविन्दुशोभिता। ललितं कबरीभारं मालतीमाल्यमण्डितम्॥

अहोऽनिर्वचनीया त्वं चारुमूर्ति च बिभ्रती। मोक्षप्रदा मुमुक्षूणां महाविष्णोर्विधि: स्वयम्॥

मुमोह क्षणमात्रेण दृ त्वां सर्वमोहिनीम्। बालै: सम्भूय सहसा सस्मिता धाविता पुरा॥

सद्भि: ख्याता तेन राधा मूलप्रकृतिरीश्वरी। कृष्णस्त्वां सहसाहूय वीर्याधानं चकार ह॥

ततो डिम्भं महज्जज्ञे ततो जातो महाविराट्। यस्यैव लोमकूपेषु ब्रह्माण्डान्यखिलानि च॥

तच्छृङ्गारक्रमेणैव त्वन्नि:श्वासो बभूव ह। स नि:श्वासो महावायु: स विराड् विश्वधारक:॥

तव घर्मजलेनैव पुप्लुवे विश्वगोलकम्। स विराड् विश्वनिलयो जलराशिर्बभूव ह॥

ततस्त्वं पञ्चधाभूय पञ्चमूर्तीश्च बिभ्रती। प्राणाधिष्ठातृमूर्तिर्या कृष्णस्य परमात्मन:॥

कृष्णप्राणाधिकां राधां तां वदन्ति पुराविद:॥

वेदाधिष्ठातृमूर्तियां वेदाशास्त्रप्रसूरपि। तौ सावित्रीं शुद्धरूपां प्रवदन्ति मनीषिण:॥

ऐश्वर्याधिष्ठातृमूर्ति: शान्तिश्च शान्तरूपिणी। लक्ष्मीं वदन्ति संतस्तां शुद्धां सत्त्‍‌वस्रूपिणीम्॥

रागाधिष्ठातृदेवी या शुक्लमूर्ति: सतां प्रसू:। सरस्वतीं तां शास्त्रज्ञां शास्त्रज्ञा: प्रवदन्त्यहो॥

बुद्धिर्विद्या सर्वशक्ते र्या मूर्तिरधिदेवता। सर्वमङ्गलमङ्गल्या सर्वमङ्गलरूपिणी॥

सर्वमङ्गलबीजस्य शिवस्य निलयेऽधुना॥

शिवे शिवास्वरूपा त्वं लक्ष्मीर्नारायणान्तिके। सरस्वती च सावित्री वेदसू‌र्ब्रह्मण: प्रिया॥

राधा रासेश्वरस्यैव परिपूर्णतमस्य च। परमानन्दरूपस्य परमानन्दरूपिणी॥

त्वत्कलांशांशकलया देवानामपि योषित:॥

त्वं विद्या योषित: सर्वास्त्वं सर्वबीजरूपिणी। छाया सूर्यस्य चन्द्रस्य रोहिणी सर्वमोहिनी॥

शची शक्रस्य कामस्य कामिनी रतिरीश्वरी। वरुणानी जलेशस्य वायो: स्त्री प्राणवल्लभा॥

वह्ने: प्रिया हि स्वाहा च कुबेरस्य च सुन्दरी। यमस्य तु सुशीला च नैर्ऋतस्य च कैटभी॥

ईशानस्य शशिकला शतरूपा मनो: प्रिया। देवहूति: कर्दमस्य वसिष्ठस्याप्यरुन्धती॥

लोपामुद्राप्यगस्त्यस्य देवमातादितिस्तथा। अहल्या गौतमस्यापि सर्वाधारा वसुन्धरा॥

गङ्गा च तुलसी चापि पृथिव्यां या: सरिद्वरा:। एता: सर्वाश्च या ह्यन्या: सर्वास्त्वत्कलयाम्बिके॥

गृहलक्ष्मीगर्ृहे नृणांराजलक्ष्मीश्च राजसु। तपस्विनां तपस्या त्वं गायत्री ब्राह्मणस्य च॥

सतां सत्त्‍‌वस्वरूपा त्वमसतां कलहाङ्कुरा। ज्योतीरूपा निर्गुणस्य शक्ति स्त्वं सगुणस्य च॥

सूर्ये प्रभास्वरूपा त्वं दाहिका च हुताशने। जले शैत्यस्वरूपा च शोभारूपा निशाकरे॥

त्वं भूमौ गन्धरूपा च आकाशे शब्दरूपिणी। क्षुत्पिपासादयस्त्वं च जीविनां सर्वशक्त य:॥

सर्वबीजस्वरूपा त्वं संसारे साररूपिणी। स्मूतिर्मेधा च बुद्धिर्वा ज्ञानशक्ति र्विपश्चिताम्॥

कृष्णेन विद्या या दत्ता सर्वज्ञानप्रसू: शुभा। शूलिने कृपया सा त्वं यतो मृत्युञ्जय: शिव:॥

सृष्टिपालनसंहारशक्त यस्त्रिविधाश्च या:। ब्रह्मविष्णुमहेशानां सा त्वमेव नमोऽस्तु ते॥

मधुकैटभभीत्या च त्रस्तो धाता प्रकम्पित:। स्तुत्वा मुमोच यां देवीं तां मूधनर् प्रणमाम्यहम्॥

मधुकैटभयोर्युद्धे त्रातासौ विष्णुरीश्वरीम्। बभूव शक्ति मान् स्तुत्वा तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥

त्रिपुरस्य महायुद्धे सरथे पतिते शिवे। यां तुष्टुवु: सुरा: सर्वे तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥

विष्णुना वृषरूपेण स्वयं शम्भु: समुत्थित: जघान त्रिपुरं स्तुत्वा तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥

यदाज्ञया वाति वात: सूर्यस्तपति संततम्। वर्षतीन्द्रो दहत्यगिन्स्तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥

यदाज्ञया हि कालश्च शश्वद् भ्रमति वेगत:। मृत्युश्चरति जन्त्वोघे तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥

स्त्रष्टा सृजति सृष्टिं च पाता पाति यदाज्ञया। संहर्ता संहरेत् काले तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥

ज्योति:स्वरूपो भगवाञ्छ्रीकृष्णो निर्गुण: स्वयम्। यया विना न शक्त श्च सृष्टिं कर्तु नमामि ताम्॥

रक्ष रक्ष जगन्मातरपराधं क्षमस्व ते। शिशूनामपराधेन कुतो माता हि कुप्यति॥

इत्युक्त्वा पर्शुरामश्च प्रणम्य तां रुरोद ह। तुष्टा दुर्गा सम्भ्रमेण चाभयं च वरं ददौ॥

अमरो भव हे पुत्र वत्स सुस्थिरतां व्रज। शर्वप्रसादात् सर्वत्र ज्योऽस्तु तव संततम्॥

सर्वान्तरात्मा भगवांस्तुष्टोऽस्तु संततं हरि:। भक्ति र्भवतु ते कृष्णे शिवदे च शिवे गुरौ॥

इष्टदेवे गुरौ यस्य भक्ति र्भवति शाश्वती। तं हन्तु न हि शक्त ाश्च रुष्टाश्च सर्वदेवता:॥

श्रीकृष्णस्य च भक्त स्त्वं शिष्यो हि शंकरस्य च। गुरुपत्‍‌नीं स्तौषि यस्मात् कस्त्वां हन्तुमिहेश्वर:॥

अहो न कृष्णभक्त ानामशुभं विद्यते क्वचित्। अन्यदेवेषु ये भक्त ा न भक्त ा वा निरेङ्कुशा:॥

चन्द्रमा बलवांस्तुष्टो येषां भाग्यवतां भृगो। तेषां तारागणा रुष्टा: किं कुर्वन्ति च दुर्बला:॥

यस्य तुष्ट: सभायां चेन्नरदेवो महान् सुखी। तस्य किं वा करिष्यन्ति रुष्टा भृत्याश्च दुर्बला:॥

इत्युक्त्वा पार्वती तुष्टा दत्त्‍‌वा रामं शुभाशिषम्। जगामान्त:पुरं तूर्ण हरिशब्दो बभूव ह॥

स्तोत्रं वै काण्वशाखोक्तं पूजाकाले च य: पठेत्। यात्राकाले च प्रातर्वा वाञ्िछतार्थ लभेद्ध्रुवम॥

पुत्रार्थी लभते पुत्रं कन्यार्थी कन्यकां लभेत्। विद्यार्थी लभते विद्यां प्रजार्थी चाप्रुयात् प्रजाम्॥

भ्रष्टराज्यो लभेद् राज्यं नष्टवित्तो धनं लभेत्॥

यस्य रुष्टो गुरुर्देवो राजा वा बान्धवोऽथवा। तस्य तुष्टश्च वरद: स्तोत्रराजप्रसादत:॥

दस्युग्रस्तोऽहिग्रस्तश्च शत्रुग्रस्तो भयानक:। व्याधिग्रस्तो भवेन्मुक्त : स्तोत्रस्मरणमात्रत:॥

राजद्वारे श्मशाने च कारागारे च बन्धने। जलराशौ निमगन्श्च मुक्त स्तत्स्मृतिमात्रत:॥

स्वामिभेदे पुत्रभेदे मित्रभेदे च दारुणे। स्तोत्रस्मरणमात्रेण वाञ्िछतार्थ लभेद् ध्रुवम॥

कृत्वा हविष्यं वर्ष च स्तोत्रराजं श्रृणोति या। भक्त्या दुर्गा च सम्पूज्य महावन्ध्या प्रसूयते॥

लभते सा दिव्यपुत्रं ज्ञानिनं चिरजीविनम्। असौभाग्या च सौभाग्यं षण्मासश्रवणाल्लभेत्॥

नवमासं काकवन्ध्या मृतवत्सा च भक्ति त:। स्तोत्रराजं या श्रृणोति सा पुत्रं लभते धु्रवम्॥

कन्यामाता पुत्रहीना पञ्जमासं श्रृणोति या। घटे सम्पूज्य दुर्गा च सा पुत्रं लभते धु्रवम्॥